ब्राह्मणत्व जन्म नहीं आचरण का विषय 

Mohit
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“यदि शूद्र में सत्य आदि उपयुक्त लक्षण हैं और ब्राह्मण में नहीं हैं, तो वह शूद्र शूद्र नहीं है, न वह ब्राह्मण ब्राह्मण। युधिष्ठिर कहते हैं कि हे सर्प जिसमें ये सत्य आदि ये लक्षण मौजूद हों, वह ब्राह्मण माना गया है और जिसमें इन लक्षणों का अभाव हो, उसे शूद्र कहना चाहिए”….
-महाभारत,वनपर्व सर्प-युधिष्ठिर संवाद

धर्मशात्रों में ब्राह्मणों का स्थान अप्रतिम और अमोघ माना गया है। लोग कह सकते है क्योंकि शास्त्रकार सबके सब ब्राह्मण होते थे इसलिए खुद को सर्वोपरि रखा। फिर भी ब्राह्मणत्व में ऐसा कुछ न कुछ तो होगा कि प्रायः प्रत्येक थर्मशास्त्रों में बार बार समाज को सावधान किया गया है कि वह ब्राह्मणों को रुष्ट होने का अवसर नहीं दे। क्योंकि….

मन्युप्रहरणा विप्राः न विप्रा शस्त्रयोधिनः।
निहन्युर्मन्युना विप्राः बज्रपाणिर वासुरान।।

ब्राह्मण शस्त्र उठाकर युद्ध नहीं करता, उसका हथियार उसका क्रोध है। क्रोध के द्वारा ब्राह्मण वैसा ही विनाश करता है, जैसा विनाश असुरों का इंद्र करते हैं।

वास्तविक पक्ष यह है कि ब्राह्मणों के शील, स्वभाव और चरित्र की कल्पना जिस ऊंचे धरातल पर की गई है उसे देखते हुए यह सर्वोपरि स्थान प्राप्त हुआ।

ब्राह्मण नैतिकता के प्रहरी थे। वे समाज के विवेक के प्रतिनिधि होते थे, अतेव उनका धर्म था कि स्वयं राजा भी कुमार्ग पर चले तो उसका प्रतिरोध करे।

स्पष्टतः यह वही कर सकता है जिसे किसी वस्तु का लोभ न हो। राजा के चरणों में बिछा ब्राह्मण चारण हो सकता है ब्राह्मण नहीं। वह धन और कीर्ति के लोभ में पड़कर अपने कर्तव्य से विमुख न हो।

भगवान शंकराचार्य से जुड़ी एक कथा है..संन्यास की दीक्षा के उपरान्त वे भिक्षा के लिए एक ब्राह्मणी के घर पहुंचे- मातु भिक्षाम् देहि, की टेर लगाई। ब्राह्मणी अत्यंत गरीब थी। उसके घर अन्न का एक दाना भी न था। वह स्वयं कई दिनों से भूखी थी ..पर याचक अतिथि को कैसे लौटाती। उसके घर एक सूखा आँवला था उसे भिक्षु शंकर को दे दिया।

कृशकाय गरीब ब्रह्माणी की दशा देखकर आचार्य शंकर की करुणा जगी। शंकर ने स्त्रोत पाठकर माँ लक्ष्मी का आह्वान किया। माँ प्रसन्न हुईं और शंकर की याचनानुसार गरीब ब्राह्मणी के घर को स्वर्ण आँवलों से भर दिया।

शंकराचार्य यह स्वयं के लिए कर सकते थे या ब्राह्मणी क्षुधापूर्ति के अंतिम साधन से अपना पेट भर सकती थी। पर दोनों ने अपने अपने धर्म का अनुपालन किया। वास्तव में ब्राह्मण धर्म यही है इसीलिए वेदान्त, पुराणों में ब्राह्मण की सर्वोच्चता है।

सच्चा ब्राहमण वो जो धन, यश, कीर्ति, सम्मान की अपेक्षा न करे। इसीलिए मनुस्मृति में बार बार ब्राह्मणों को सावधान किया गया है।

असम्मानात्तपोवृद्धिः सम्मानातु तपःक्षयः

असम्मान पाने से तपस्या में वृद्धि होती है, सम्मान पाने से तप का विनाश होता है।

सम्मानाद् ब्राह्मणो नित्यं उद्धिजेत विषादिव
अमृतस्यैव चाकांक्षेत अवमानस्य सर्वदा।

सम्मान से ब्राह्मण उसी प्रकार भागे, जैसे मनुष्य जहर से भागता है और अपमान की कामना वह उसी प्रकार करे, जैसे लोग अमृत की कामना करते हैं।

अर्चितः पूजितो विप्रः दुग्ध गौरिव सीदति।

अर्थात अर्चित पूजित विप्र दुही हुई गौ के समान सूख जाता है। यह मनु का आख्यान है उनके स्मृति ग्रंथ में।

क्या ऐसा नहीं लगता कि हम ब्राह्मणत्व के गौरव का तो उपभोग करना चाहते हैं पर उसके जीवन आचरण के कठोर अनुशासन को विस्मृत कर देते हैं। वैदिक काल में ब्राह्मणों का इसलिए सत्कार था क्योंकि वे कठोर जीवन का निर्वाह करते थे।

एक बड़ा प्रश्न वैदिक काल से ही विमर्श का विषय रहा है कि ब्राह्मणत्व जन्म से प्राप्त होता है या कर्म से।

जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उचयते।

इस श्लोक से स्पष्ट है वर्ण निर्धारण कर्म से होना चाहिए। किंतु अत्रि संहिता में यही बात विपरीत ढंग से कही गयी है।

जन्मना ब्राह्मणौं ग्येयः संस्काराद् द्विज उच्यते।

अर्थात् ब्राह्मण जन्म से ही ब्राह्मण होता है, संस्कारों से द्विजत्व की प्राप्ति होती है।

यह शंका महाभारतकार महर्षि व्यास के भी मन में भी थी, जिसे उन्होंने वनपर्व में वर्णित युधिष्ठिर-सर्प संवाद में प्रत्यक्ष किया है। सर्प युधिष्ठिर से पूछता है..ब्राह्मण कौन है? इस पर युधिष्ठिर कहते हैं कि ब्राह्मण वह है, जिसमें सत्य, क्षमा, सुशीलता, क्रूरता का अभाव तथा तपस्या और दया, इन सद्गुणों का निवास हो। इस पर सर्प शंका करता है कि ये गुण तो शूद्र में भी हो सकते हैं, तब ब्राह्मण और शूद्र में क्या अंतर है?

शूद्रेष्वपि च सत्यं च दानम्क्रोध एव च
आनृशंस्रमहिंसा च घृणा चैव युधिष्ठिर।

अर्थात् हे युधिष्ठिर, सत्य, दान,दया, अहिंसा आदि गुण तो शूद्रों में भी हो सकते हैंं। इस पर युधिष्ठिर ने जो उत्तर दिया, वह किसी भी अभिनव मनुष्य का उत्तर हो सकता है। युधिष्ठिर ने कहा..

शूद्रे तु यद् भवेल्लक्ष्म द्विजे तच्च न विद्यते,
न वै शूद्रो भवेच्छूद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मणः।
यत्रैतल्लक्ष्यते सर्प वृत्तं स ब्राह्मणः स्मृतः
यत्रैतन्न भवेत सर्प तं शूद्रमति निर्दिशेत।

अर्थात यदि शूद्र में सत्य आदि उपयुक्त लक्षण हैं और ब्राह्मण में नहीं हैं, तो वह शूद्र शूद्र नहीं है, न वह ब्राह्मण ब्राह्मण। हे सर्प जिसमें ये सत्य आदि ये लक्षण मौजूद हों, वह ब्राह्मण माना गया है और जिसमें इन लक्षणों का अभाव हो, उसे शूद्र कहना चाहिए।

भारतीय ग्यान परंपरा की अमूल्य निधि वैदिक वाग्यमय की रचना अकेले ब्राह्मणों ने नहीं की है। ऋषिपरंपरा में वर्ण व्यवस्था नहीं थी। प्रकारान्तर में वे ब्राह्मण माने गए जिन्होंने तप,साधना और ग्यान से ब्रह्म के रहस्य को जाना।

वेद सहित उस समय का रचा हुआ समग्र साहित्य श्रुति और स्मृति परंपरा
से होते हुए उस काल तक पहुँचा जहाँ जनसंचार के साधन मिलने शुरू हुए। जब यह ग्यान वृहद ग्रंथों के रूप में संकलित होने लगा तब इसमें ग्रंथकारों की ओर से क्षेपक और बुद्धिविलास बखानने का काम शुरू हुआ। वैदिक ग्रंथों की टीकाएं सुविधानुसार की जाने लगी इससे ग्यान की मूल अवधारणा दूषित होने लगी।

जिस वर्ग पर इसके संरक्षण व संवर्धन की जिम्मेदारी थी उसी ने सबसे ज्यादा यह काम किया। ऋषिपरंपरा से प्रवाहित प्रवाहित होकर चली यह ग्यान संपदा समयकाल के साथ विरूपित होती गयी।

आज जिस शोध व अनुसंधान की जरूरत है वह यही कि नीर-क्षीर विवेक का प्रयोग करते हुए वेद पुराणों के शुद्ध व संशोधित संस्करण लाए जाएं जो समयकाल के विरूपण से मुक्त हों।

ग्यान पर ब्राह्मणों का एकाधिकार कभी नहीं रहा। उसे हर वर्ग के लोगों ने संपन्न किया। विश्व के दो महान ग्रंथ हैं, पहला बाल्मीक कृत रामायण, दूसरा वेदव्यास कृत महाभारत। ये दोनों ही महापुरुष जन्म से ब्राह्मण नहीं हैं। सूतजी जिन्हें कथावाचक या सूत्रधार के रूप में पुराणों को लोकमानस तक पहुंचाने का श्रेय जाता है वे ब्राह्मण नहीं अपितु वर्ण से शूद्र थे।

वेद ध्वनि सुनने पर शूद्र और स्त्री के कानों में पिघला हुआ सीसा डाल देने का श्लोक रचने वाले वही स्वार्थी तत्व थे जिन्होंने ने ऋषि परंपरा से निकले ग्यान को कर्मकाण्ड में बदलकर उसे अपनी वृत्ति(पेशा) बना लिया। यह जानना चाहिए कि वेद किन्हीं एक व्यक्ति द्वारा नहीं लिखे गए। यह तत्कालीन समाज की सहकारी रचनाकर्म है जिसमें महिलाओं का योगदान अग्रगण्य है।

वेदों में विदुषियों का सम्मान सहित उल्लेख है। और फिर इस बात का उल्लेख पहले ही कर चुका हूँ कि वेदों के रचनाकाल के समय वर्णव्यवस्था थी ही नहीं। यह तो बहुत बाद स्मृति ग्रंथों व पुराणों के रचनाकाल में घनीभूत हुई।

इसलिए महाभारत में युधिष्ठिर-सर्प संवाद में ब्राह्मण व शूद्र को जिस तरह परिभाषित किया गया और ग्रंथकार वेदव्यास ने जो परिभाषा दी वही सबको ग्राह्य और विशाल हिंदू समाज में उसी की ही पुर्नप्राणप्रतिष्ठा की जानी चाहिए।

जयराम शुक्ल