( ब्रजेश राजपूत का ब्लॉग )
सुबह का अलार्म बजते ही नींद खुली। घडी देखी तो तड़के साढ़े तीन बजे थे। तुरत फुरत बिस्तर छोडा। रात की नींद आंखों में भरी थी। फिर भी किचन में जाकर बेटे और पति के दिन के लिये खाने को कुछ बनाया। उसी में से अपने लिये टिफिन में रखा। राखी की थाली तो रात में ही सजा रखी थी। उसे बडे जतन से बैग में रखा। अंधेरा था मगर अपने मोहल्ले की गली छोड़कर रोड पर आ गयी थी। जहां हमारे साथी टेम्पो टैक्स लेकर आ चुके थे। एक छोटी सी गाडी में नौ लोग सवार थे। महिलाओं में मैं अकेली थी।
राखी रख ली शर्मा जी ने मुस्कुराकर पूछा। मैडम आप देखना इस बार आपकी राखी ही मामा की कलाई पर सजेगी ये मैं कह रहा हूं। सच कहते हैं आप, इसी उम्मीद में मैंने महंगी वाली राखी खरीदी है। हमारे कस्बे से भोपाल का सफर पांच घंटे का था। रास्ते में एक जगह गाड़ी रुकी तो जब तक हमारे साथ के लोगों ने चाय पी मगर मैं चाय ना पीकर पास में बने शंकर भगवान के मंदिर में चली गयी। अगरबत्ती लगायी और प्रार्थना की हम सबका भला करना।
नौ बजे के करीब हम भोपाल में बीजेपी दफ्तर के सामने इकट्ठा होने लगे थे। ये देखकर खुशी हो रही थी कि इस बार दूर दूर से बहुत सारे साथी आये थे। नीमच मंदसौर रीवा सीधी से भी कुछ लोग और बहनें आयीं थीं जो एक एक दिन पहले से यहां होटल या रिश्तेदारों के यहां रुके थे। मैं ये देखकर खुश थी कि इस बार सबके मन में उत्साह और उम्मीद ज्यादा है। शायद ये रक्षाबंधन का असर था। इस बार हम आंदोलन करने नही मामा को राखी बांधने आये थे और वायदे में नियुक्ति की पक्की तारीख लेकर जाने वाले थे। इसलिये महिलाएं पीले कपड़ों में थीं और सभी के पास राखी के थाल सजे थे। हम बीजेपी दफतर में तो नहीं जा पाये तो उसके बगल की सड़क पर नीचे बैठा दिये गये। पुलिस ने चारों तरफ से हम पर डेरा डाल दिया।
उम्मीद थी कि बीजेपी दफतर से कोई पदाधिकारी मामा का संदेश लेकर आयेगा। वक्त बिताने के लिये हम भजन गा रहे थे हनुमान चालिसा का पाठ कर रहे थे वंदे मातरम और भारत माता की जय बोल रहे थे। मीडिया की भीड भाड तो आ गयी थी मगर हमें तो इंतजार अपने मामा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह जी का था। वो कब आएंगे और राखी बंधवायेंगे। पिछली बार उन्होंने हम आंदोलनकारियों से राखी बंधवाई थी। थोडी देर बाद डीपीआई वाले अधिकारी आए और रटी रटाई बात करने लगे। जब हमने उनसे ज्वाइनिंग की तारीख मांगी तो वो भी चुप्पी साध गये। इस बीच में दिन गुजरता जा रहा था। सुबह से हमने कुछ खाया नहीं था। जो लाये थे वो इतने सबके बीच खाने की हिम्मत नहीं हो रही थी क्योंकि किसी ने भी कुछ नहीं खाया था। फिर भी किसी के कहने पर पास जाकर चाय पी और फिर बैठ गये। जैसे जैसे दिन गुजरते जा रहा था हमारी उम्मीद टूटती जा रही थी। ना मामा आ रहे थे और ना ही कोई जिम्मेदार अधिकारी। ये तो हम भी जानते थे कि यहां आकर तो कोई नियुक्ति पत्र देगा नहीं मगर इस राखी के बदले पक्का आश्वासन पाने की उम्मीद तो यहां आये हम हजार से ज्यादा लोगों को थी ही। इस बीच घर से पति और बेटे के फोन कई बार आ चुके थे उनके सवालों के हमारे पास जवाब नहीं थे।
इधर शाम गहरा रही थी और साथ में पानी के बादल भी हो रहे थे। मगर ये क्या अचानक पुलिस की तैनाती बढ़ने लगी और एक एसडीएम हमें साढ़े छह बजे तक जगह खाली करने का बोल कर चले गये। अब पुलिस फोर्स के साथ मीडिया के लोग भी दोबारा लौटने लगे थे कुछ को हमने बुलाया तो कुछ को पुलिस की खबर लगी होगी हमें जबरदस्ती हटाने की। हमारा डर बढ रहा था। इतनी पुलिस का मुकाबला हम कैसे करेंगे और वैसे भी हम मुकाबले के लिये आये भी नहीं थे हम तो अपनी तीन साल से टल रही नियुक्ति का भरोसा लेने आये थे। इस बीच में पुलिस के अधिकारी ने माइक हाथ में लेकर हमें समझाया कि हट जाइये वरना हम आपकी जबरदस्ती फोटो लेंगे और एफआईआर करेंगे फिर आपकी नौकरी और मुष्किल में पड जायेगी। हमारी घबराहट बढ़ने लगी थी। हम महिलाओं ने एक दूसरे के हाथ थाम लिया थे। और ये क्या थोडी देर में ही महिला कांस्टेबलों ने हम महिलाओं को घेर लिया और नाम पूछकर चेहरे से मास्क हटाने लगीं। कोई हमारी राखी की थाली पर पैर रख रही तो कोई हमारे टिफिन को लात मार रहा था। पहले तो हमने थोडा विरोध किया मगर पुलिस के आगे हम होने वाले शिक्षक क्या थे। अचानक आयी तेज बारिश और पुलिस से उठकर सब यहां वहां होने लगे और यही तो प्रशासन चाहता था। थोड़ी देर में ही उम्मीद आशाओं और मामा की मंगलकामनाओं से भरा धरना तितर बितर हो गया था।
मगर ये क्या धम्म से एक महिला पुलिस वाली ने मुझे धर दबोचा गले में हाथ डाला और कहा बहुत नारे लगा रही थी चल तुझे बताती हूं। वो मुझे घसीटते देते हुये बरसते पानी में सुलभ शौचालय तक करीब सौ मीटर ले गयीं और वहां धक्का देकर कहा जाओ यहां से । मेरी राखी की थाली, टिफिन, छाता और चप्पल टूट कर कहीं छूट चुकी थी बस कंधे पर छोटा बैग था और मोबाईल. मैं निराश सड़क पर बैठ तेज बरसते पानी में भीगती रो रही थी।
लौटते वक्त गाडी में सब चुप थे मगर मेरे मन में सवाल उमड रहे थे क्या इस दिन के लिये मैंने इंजीनियरिंग की पढाई छोड बीए एमए और बीएड किया था। क्या इस अपमान के बाद में कभी स्वाभिमान से जी सकूंगी और कभी कोई नौकरी कर सकूंगी। शायद नहीं बहुत कुछ अंदर से टूट गया है। जब घर पहुंची तो फिर रात के साढ़े तीन बज रहे थे।
ब्रजेश राजपूत ..
भोपाल …