यदि कहीं भी पुलिस गोलीचालन में लोगों की मृत्यु होती है तो तत्काल बिना तथ्यों को देखे विरोधी दल एवं तथाकथित मानवाधिकार संगठन पुलिस और सरकार की निन्दा ( भर्त्सना ) शुरू कर देते हैं।कभी कभी तो ख़ुद सरकार और उनके दांये बांये चलने वाले बाबू भी इसमें शामिल हो जाते हैं। कई बार पुलिस ( साथ मे उपनिवेशवादी मजिस्ट्रेट को भी गिन लें ) बहुत कठिन परिस्थिति मे जल्दबाज़ी मे ग़लती भी कर जाते है जिसकी मीमांसा बाद मे वातानुकूलित कमरों मे की जाती है ।
दूसरा यह भी एक फ़ैशन ( या मजबूरी) है कि विपक्ष या सरकार हिंसा प्रारंभ वालों पर लेशमात्र उँगली नहीं उठाती हैं। यह मैं तमिलनाडु मे कल टूथूकुडी मे स्टरलाईट कॉपर प्रोजेक्ट के विस्तार का विरोध करने वाली हिंसक भीड़ के परिप्रेक्ष्य में कह रहा हूँ।जिस तरह की हिंसा भीड़ द्वारा की गई उसमें कोई दूसरा विकल्प नहीं था। यह बिल्कुल अलग विषय है कि क्या सरकार समय रहते सूझबूझ से मामला निपटा सकती थी।
राहुल गांधी व अन्य कई नेताओं ने बड़ी फुर्ती से कार्रवाई की निन्दा की है। ये नेता कभी घटना का वीडियो देखकर अगर ये सोचें कि वे वहाँ पर मजिस्ट्रेट या पुलिस सिपाही होते तो क्या करते।सम्भवत: किसी भी नेता से इतने विवेक और संवेदनशीलता की अपेक्षा करना दिवास्वप्न है।
एक तीसरा सबसे ख़तरनाक फ़ैशन है जिसमें उग्र हिंसक भीड़ के विरूद्ध पुलिस मूक दर्शक बनी रहती है।भीड़ स्वयं जान माल का भारी नुक़सान कर थक कर शांत हो जाती है।इस प्रथा मे पुलिस व सरकार की कोई किरकिरी नहीं होती है। सार्वजनिक सम्पत्ति का नुक़सान कोई मायने नहीं रखता है। मैं भारत मे अरबों रूपये से अधिक के नुक़सान की घटनाओं की लम्बी फ़ेहरिस्त पेश कर सकता हूँ जहाँ पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की और किसी ने इसका बुरा भी नहीं माना। टूथूकुडी मे इस सुरक्षित प्रथा का पालन न करना पुलिस को भारी पड़ सकता है !!
लेखक वरिष्ठ रिटायर्ड पुलिसऑफिसर हैं