किसी भी आदिवासी इलाके में चले जाइए, फटे हाल आदिवासी सिर पर गमछा बांधे, आधे कपड़े, टूटी चप्पल और सिले हुए जूते पहनकर चलने वाले आदिवासी क्या बताएंगे कि वोट किसको देंगे। मालवा की बात करें तो ज्यादातर आदिवासी कांग्रेस के साथ हैं, लेकिन अब भाजपा की तरफ भी जाने लगे हैं।
जोबट उपचुनाव में तीस अक्टूबर को वोट डलेंगे। यहां पर सुलोचना रावत और महेश पटेल के बीच मुकाबला है। BJP ने सुलोचना को जिताने के लिए कई विधायक और मंत्री तैनात किए हैं। हर फालिये तक भाजपा के कार्यकर्ता ही नहीं मंत्री और विधायक भी कई बार जा चुके हैं। इन सब के साथ ही पैसा और सरकारी लालच का जमकर उपयोग हुआ है। जोबट में जाने से पहले सडक़ के गड्ढे बताते हैं कि कितना विकास हुआ है। आदिवासियों की जमीनों के अधिकार और रोजगार को लेकर बातें हुईं, लेकिन वास्तव में कितना फायदा आदिवासियों को मिला, इसका हिसाब भाजपा और कांग्रेस के पास नहीं है। जिस तरह से दोनों दल ताकत लगाए हुए हैं। उसको देख कर लगता है कि मुकाबला कांटे का हो गया है। भाजपा खंडवा और रेंगाव के अलावा किसी सीट पर बदलाव में जुटी है तो वह जोबट है।
पृथ्वीपुर पर भाजपा ने जोबट जैसी ताकत नहीं झोंकी। सरकार और संगठन दोनों जोबट पर टूट पड़े। यहां चुनाव के पहले से जोड़-तोड़ में माहिर इंदौर के विधायक रमेश मेंदोला को जवाबदारी सौंपी। उसके बाद तो अलग-अलग इलाके के हिसाब से महेंद्रसिंह सिसौदिया से लेकर ओमप्रकाश सकलेचा तक कई मंत्री झोंक दिए। जोबट के बमुश्किल दो चार किलोमीटर शहरी इलाके को छोडक़र पूरा चुनाव फलिये पर हुआ है, फलिये यानी छोटे-छोटे गांव वालों को बार-बार यह बताने की कोशिश की गई कि सरकार आदिवासियों के लिए क्या कर रही है। आदिवासियों के संगठन जयस ने भी पूरी ताकत झोंक दी। आखिरी दिन भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद की रैली भी थी। भीम आर्मी के युवा शामिल हैं। वैसे गोडवाना गणतंत्र पार्टी के सरदार परमार दो-तीन या चार हजार वोट मिलेंगे, यह कहने वाले कम नहीं हैं। जयस को पीछे से भाजपा ने भी ताकत देने में कसर नहीं छोड़ी, क्योंकि जितने वोट परमार को मिलेंगे, उतना नुकसान कांग्रेस का होगा। कांग्रेस के लिए कांतिलाल भूरिया ने चुनावी कमान ले रखी थी। कांग्रेस ने भी भाजपा की तरह मैनेजमेंट पर काम करना शुरू कर दिया।
यहां कांग्रेस ने विधायक रवि जोशी को कई दिन से बूथ मैनेजमेंट में लगा रखा है। आधी रात तक जोशी कौन नेता और कार्यकर्ता किस इलाके तक पहुंचा, इसका हिसाब लेते रहे। कांग्रेस उम्मीदवार पटेल की छवि को लेकर भाजपा ने माहौल खराब बनाने में कसर नहीं छोड़ी। धर्म का सहारा भी लिया। दीवाली को देखकर घर-घर भाजपा कार्यकर्ताओं ने लक्ष्मी के पाने भी बांटे हैं। कांग्रेसी मानते हैं कि कलावती भूरिया बीस हजार से ज्यादा वोटों से चुनाव जीती थीं। भाजपा इतना बड़ा गड्ढा नहीं भर पाएगी, लेकिन भाजपा वाले कहते हैं कि हम तो चुनाव जीतेंगे, भले ही जीत दो-चार हजार वोट से हो।
आदिवासियों पर अब तक करोड़ों रुपए खर्च किया जा चुका है, लेकिन यदि एक आदिवासी के बैंक खाते में सरकार रुपए सीधे जमा कर देती तो शायद आदिवासी की हालत सुधर जाती है। कांग्रेस और भाजपा की सरकारों ने जोबट जैसी विधानसभा में आदिवासियों पर जो पैसा खर्च किया है, उसका दस-बीस फीसदी भी उनको मिल जाता तो शायद जोबट के आदिवासी भी खुश हो जाते। हर चुनाव में आदिवासियों के अधिकार, खेती के फायदे और रोजगार जैसी बातें होती हैं, पर चुनाव के बाद आदिवासियों को कोई नहीं पूछता। हां, होली पर भगोरिया जो उत्सव बनता है उसमें सारे नेता आदिवासियों के ड्रेस पहनकर ढोलक बजाते हुए या नाचते देखे जा सकते हैं।
अब विक्रांत भूरिया युवा आदिवासियों में पैठ बनाने में लगे हैं, लेकिन उनकी युवा कांग्रेस की टीम अकेले जोबट में ही नहीं दूसरे उपचुनाव में भी लगी है। खुद विक्रांत जोबट आते-जाते रहे हैं,चुनाव की कमान कांति भूरिया के हाथ में ही है। परंपरागत कांग्रेसी कार्यकर्ता काम पर लगे हैं। कांग्रेस ने भी चुनाव में पैसा खर्च किया, लेकिन भाजपा से कम। इन इलाकों में संघ भी काम कर रहा है, लेकिन कांग्रेस के हाथ से सीट छीनना आसान नहीं है। फिर भी भाजपा अब ताकतवर इतनी हो गई है कि पासा पलटने की ताकत रखती है। कांग्रेस अपने परंपरागत वोटों के आधार पर जीत का गणित लगाती रही है। भाजपा और कांग्रेस के बीच वोट गिरने तक जमावट चलती रहेगी। आखिरी वक्त में जो मेहनत ज्यादा करेगा वह जीत जाएगा, लेकिन फिर सवाल है कि आदिवासी के तन पर पूरे कपड़े कब दिखेंगे, जूते और चप्पल फटे हुए नहीं दिखेंगे, आदिवासियों के बच्चे भी पढ़-लिख कर कुछ बन पाएंगे। कब…?