बिछड़े साथी बारी बारी .. ( पुस्तक समीक्षा )

Pinal Patidar
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ब्रजेश राजपुत
२०२१ का साल बीत गया मगर बीता साल बहुत कुछ जिन्दगी में रीत गया. हमारी आपकी ज़िन्दगी में ऐसा खालीपन का दौर पहले कभी नहीं आया जो पिछले साल के दिनों में आया है. हम सभी ने कोई न कोई अपना खोया है. महामारी को अब तक हमने आपने किताबों उपन्यासों में पढ़ा था. मगर भोगा पिछले साल के दिनों में. इसी भोगे हुये और अपने खोये हुये साथी को याद करने की कोशिश की हैं ग्वालियर के वरिष्ठ पत्रकार देव श्रीमाली ने अपनी किताब बिछड़े कई बारी बारी में.

महामारी ये देखकर नहीं आती की कौन क्या है. मंत्री, नेता, अभिनेता, अफसर और आम जनता तो इस बीमारी का शिकार हुये मगर इस दरम्यान आम जनता घरों में सुरक्षित थी तो सड़कों पर वो सारे लोग अपना काम पूरी जिम्मेदारी से कर रहे थे जिनको बाद में कोरोना योद्ध्या कहा गया. पुलिस डाक्टर और प्रेस इसी श्रेणी में थे. मगर अफ़सोस है की इन तीनों दर्जे के लोग भी महामारी की चपेट में आने से बच न सके. मध्य प्रदेश में इस महामारी में जान गंवाने वाले प्रेस के तकरीबन अस्सी साथियों की कहानी या उनकी यादों को संजोया गया है बिछड़े कई बारी बारी में.

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भोपाल से लेकर इंदौर, उज्जैन, ग्वालियर से लेकर मंदसौर, कटनी, छिन्दवारा, शहडोल, रायसेन, सीधी, धार, अलीराजपुर जैसे छोटे कस्बों के पत्रकारों की दुःख भरी कहानियां इस किताब के भीगे पन्नों में दर्ज की गई है. बात चाहे भोपाल के राजकुमार केसवानी की हो, शिव अनुराग पटेरिया, महेन्द्र गगन, कमल दीक्षित हों या फिर मनोज पाठक जैसे मददगार लोग या फिर इन्दौर के प्रकाश बियानी प्रभु जोशी मनोज बिनवाल या फिर ग्वालियर के शरद श्रीवास्तव,अनूप शर्मा, देवेन्द्र खंडेलवाल अनेक नाम हैं मगर सबकी कहानियां एक सी हैं कि इन सबको काम करते करते ये कोरोना की चपेट में आये और ख़बरें बनाते बनाते खुद खबर बन गए.

ये अलग बात है कि दूसरों का नाम अपने अख़बारों में छापने वालों के नाम मरकर भी कई दफा अपने अखबार में भी नहीं छाप पाता. इस किताब की प्रस्तावना में पत्रकार रवीश कुमार ने लिखा है की मरने के बाद भी पत्रकार कई बार अपने संसथान की क्रूरता और दुसरे अख़बारों की उदासीनता का शिकार होता है. पत्रकार अपने साथी पत्रकार के बारे में भी नहीं लिख सकते की उसके इलाज में लापरवाही हुई है. आमतौर पर पत्रकार को बड़ा प्रभावशाली माना जाता है मगर इस किताब में अनेक किस्से हैं जिसमें आप पढेंगें की कोरोना की चपेट में आने के बाद उसे भी अस्पताल का बिस्तर मुश्किल से मिला और इलाज में लगे पैसों के लिए दोस्तों ने चन्दा कर पैसे चुकाए.

कोरोना काल से पहले के सालों में पत्रकारिता संस्थानों की हालत बिगड़ी जिसका असर पत्रकार के परिवारों पर पड़ा. नौकरियां छूटी और पैसे मिलने कम हो गये ऐसे में कोरोना के दौर ने राजधानी और जिलों के पत्रकारों तो आर्थिक तौर पर तोड़ दिया. इस किताब के पन्नों में पत्रकारों की मौत की ख़बरें तो लिखीं ही गईं है मगर उन ख़बरों के बीच बेहद कम कमाई पर जीने वाले पत्रकार के दुःख दर्द को भी पाठक महसूस करेंगे.

इस किताब के प्रारंभ में चर्चित लेखक पंकज चतुर्वेदी ने भी कहा है की एक आंचलिक पत्रकार के देहावसान के साथ ही उसके खबर के सूत्र, उसकी शैली और उसके संस्कार सभी का अंत हो जाता है जो समाज का गहरा नुक्सान होता है।
पत्रकार का परिवार तो अकेला पड ही जाता है इसलिए ये किताब एक चेतावनी भी है की पत्रकारों के परिवारों को विषम परिस्थितियों में जीने के लिए अकेले छोड़ने के बजाये सरकार कोई नीति बनाये तो ये सच्ची शृधांजलि होगी कोविड काल में मारे गए मध्य प्रदेश के सौ से ज्यादा पत्रकारों के लिए. अपने पत्रकार साथियों को याद करने की ये अच्छी पहल है जो ग्वालियर के ग्रामीण पत्रकारिता विकास संसथान ने इस किताब को निकाल कर की है. साधुवाद देव श्रीमाली और इस संस्थान को …

किताब – बिछड़े कई बारी बारी
लेखक – देव श्रीमाली
प्रकाशक – लोकमित्र, दिल्ली
कीमत – २५० रूपये