बंगाल !

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चंद्रशेखर शर्मा

पश्चिम बंगाल चुनाव नतीजे के कई मायने हैं। एक क्या इसे मान सकते हैं कि दो हजार चौबीस के आम चुनाव के लिए देश को एक और प्रधानमंत्री उम्मीदवार मिल गया है ? इससे शायद ही कोई इनकार करे। जी हां, वो आम चुनाव अभी दूर है। फिर भी चर्चा तो शुरू है। कल रात एनडीटीवी पर अथिति वक्ता, एक वरिष्ठ महिला पत्रकार ने बिना पूछे इस पर ‘बहुत उत्साह और रोमांच’ के साथ अपनी राय रखी। इन (सॉरी, नाम मैं भूल गया) मैडम को ममता दीदी उसके लिए बतौर प्रधानमंत्री उम्मीदवार बहुत दमदार लगीं। हालांकि वो आम चुनाव अभी दूर है, लेकिन देखने वाले दूर तक देखते हैं।

इस पर आगे बात करने से पहले चुनाव नतीजे का एक मायना और देखते हैं। आंकड़े बताते हैं कि राजनीतिक हिंसा के मामले में पश्चिम बंगाल देश में नम्बर वन है। एनडीटीवी पर एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार वेबरुन रॉय को इस बात पर हैरानी थी कि चुनाव की शुरुआत में बीजेपी ने टोलबाजी, भ्रष्टाचार और तुष्टिकरण के मुद्दे उठाकर टीएमसी को बैकफुट पर ला दिया था, लेकिन बाद में उनको भुलाकर पूरा फोकस जय श्रीराम के नारे और अन्य मुद्दों पर लगा दिया। इसके चलते उसे जो ‘स्टार्ट’ मिला था, वो जाता रहा। खैर।

सो नतीजे का दूसरा मायना ये है कि ये नतीजे, देश में टॉप की, उस राजनीतिक हिंसा की फिक्र से परे हैं। यूं भी कह सकते हैं कि राजनीतिक हिंसा को वहां जायज मान लिया गया है। आप देखिए कि कल नतीजों के फौरन बाद वहां खूब आगजनी हुई, भाजपा के दफ्तर जला दिए गए और एक भाजपा कार्यकर्ता की हत्या की भी सुरसुरी थी। आरोप चुनाव जीतने वाली टीएमसी के ‘गुंडों’ पर है। हालांकि सुबह अखबारों में और अन्य माध्यमों से इस बारे में स्थिति और साफ होगी।

चुनाव जीतने के तुरंत बाद इस तरह किसी राजनीतिक दल के दफ्तरों को आग लगाना और खूनखराबे की घटना शायद देश ने पहली दफा देखी है। वो भी चुनाव जीतने वाली पार्टी के लोगों द्वारा चुनाव हारने वाली पार्टी के खिलाफ । भाजपा ये आरोप लगाती रही है कि वहां उसके सवा सौ से ज्यादा कार्यकर्ताओं की हत्या की जा चुकी है। टीएमसी का कहना है कि उसके भी बहुत कार्यकर्ता मारे गए हैं। इससे और कुछ साबित हो न हो, मगर ये तो साफ तौर पर साबित होता है कि राजनीतिक हिंसा में पश्चिम बंगाल ऐसे ही नम्बर वन न है।

अब ये देखिए कि पिछली बार भाजपा के पास वहां केवल तीन सीटें थीं। ऊपर से दो सौ सीटों को जीतने का इरादा बनाने वाली इस भाजपा के पास इस बार चुनाव लड़ाने लायक इतने नेता ही न थे। कारण ये कि इस बड़े राज्य में संगठन के नाम पर वो लगभग ठन ठन गोपाल थी। कैलाश विजयवर्गीय को वहां लंबे समय तक तैनात करने के बाद भी गोया वहां संगठन की कोंपले भर फूटी थीं। तभी तो भाजपा को वहां टीएमसी और कांग्रेस से आये बेशुमार नेताओं को चुनाव लड़ाना पड़ा।

कौन नहीं जानता कि भाजपा के लिए संगठन उसकी कैसी ताकत है। उसी ताकत से वो वहां खाली थी। भाजपा इस बात को जानती थी कि वो संगठन की उस ताकत के बिना वहां चुनाव लड़ रही थी और इसीलिए उसकी भरपाई के तौर पर उस ताकत के अलावा उसकी अपनी जितनी भी ताकत थी, वो सब उसने वहां झोंक दी ! प्रधानमंत्री-गृह मंत्री से लेकर तमाम मुख्यमंत्रियों तक। सबको इसकी पूरी माहिती है। बेशक वो हर सूरत बंगाल जीतने की ख्वाहिशमंद थी। पिछले लोकसभा चुनाव में मिली कामयाबी से उसकी ये ख्वाहिश परवान चढ़ना ही थी। हालांकि हर सूरत बंगाल जीतने के उसके मंसूबों के पीछे दीगर कारण भी रहे होंगे। संभव है उनमें से एक श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी रहे हों।

बहरहाल वहां राजीनीतिक हिंसा का बहुत पुराना इतिहास है। भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या के अलावा चुनाव के पहले भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा और कैलाश विजयवर्गीय के काफिले पर हमले के बाद चुनाव के दौरान भी ऐसी कई घटनाएं वहां हुईं। चूंकि भाजपा का वहां बहुत कमजोर संगठन है तो इस राजनीतिक हिंसा में उसका कितना योगदान और दम-गुर्दा है, ये समझा जा सकता है। यह भी देखिए कि जय श्रीराम का उद्घोष करने पर मुख्यमंत्री बिफर जाए, गरबा पांडाल न लगने दे, पूजा न होने दे और सवा सौ से ज्यादा भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी जाए और फिर भी भाजपा की ओर से वहां कोई ढंग का मैदानी प्रतिकार न हुआ। क्यों ? क्योंकि उसके पास वहां कोई संगठन ही न था और जाहिर है न उसके अपने इतने लोग थे।

तुष्टिकरण के चलते जय श्रीराम के उद्घोष से बिफरने, गरबा पांडाल की अनुमति न देने और पूजा न होने देने जैसे कामों के साथ राजनीतिक हिंसा और हत्याओं के जरिये वहां भाजपा को दबाने के लिए ममता और टीएमसी द्वारा हर हथकंडा आजमाया गया। सो सबसे गौरतलब बात चुनाव के नतीजे जो बता रहे हैं वो यह है कि भाजपा को चुनाव जीतने से रोकने के लिए ये हथकंडे काफी कारगर रहे हैं।

फिर चुनाव नतीजों के तुरंत बाद हुई हिंसा गोया ये मुनादी है कि ये आईन्दा भी जारी रहना है ! यों भाजपा ने वहां पहले के मुकाबले लगभग पचीस गुना ज्यादा सीटें जीती हैं। इसके मायने ये है कि मुख्यमंत्री के उस तुष्टिकरण और राजनीतिक हिंसा को बहुत लोगों ने नकारा भी है। इसके चलते वहां आईन्दा होने वाला तुष्टिकरण और खासकर राजनीतिक हिंसा में क्या और कितनी कमीबेशी होगी, इसका बस अनुमान लगाया जा सकता है। नतीजे के तुरंत बाद उसकी शुरुआत तो हो गयी है और गोया इस तरह भाजपा को चेतावनी भी दी गयी हो सकती है।

कल रात एनडीटीवी पर उस वरिष्ठ महिला पत्रकार का कहना था कि यदि विपक्ष में कोई महागठबंधन हो, उसका चेहरा ममता दीदी हो और प्रदेशों में ममता दीदी जैसा ‘जुझारू नेतृत्व’ हो तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रचार करने और भाजपा के पूरी ताकत लगाने के बाद भी उसे हराया जा सकता है ! ऐसा कहते हुए वो पत्रकार बहुत पुलक रही थीं। इसमें दो इशारे साफ है। एक है ममता दीदी जैसा तुष्टिकरण और दूसरा भाजपा के खिलाफ खूनखराबे वाली राजनीतिक हिंसा। कहें तो भाजपा के खिलाफ कामयाबी का नया सिद्ध फार्मूला। इस लिहाज से देखें तो तुष्टिकरण और राजनीतिक हिंसा का भविष्य बहुत उज्ज्वल दिख रहा है। फिर भड़काने वाले गल्ला सारे नेता हैं ही। जो हो।

वेबरुन रॉय ने एक बात ये कही कि भाजपा और नरेंद्र मोदी ने इस चुनाव में जो हासिल कर दिखाया है, वो स्वर्गीय श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी नहीं कर पाए थे ! हां, ये सच है कि कोरोना महामारी में चुनाव कार्यक्रमों को तरजीह देने की चूक मोदी से हुई है। उसका निदान वही जाने।