बाल गंगाधर तिलक ने अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होने के लिए गणेशोत्सव पर दिए थे उम्दा विचार

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कल शाम मैं मालगंज के शहर के चर्चित और ‘जिंदा’ ठिये आदरणीय पर था। हमेशा की तरह वहां नियमित बैठने वाले पूर्व विधायक गोपी नेमा, उनके सदा साथ रहने वाले उनके मित्र बालकृष्ण अरोरा (लालू), अशोक पहलवान और उनके भाई अरविंद, वरिष्ठ पत्रकार और बेहतरीन लेखक तपेन्द्र सुगंधी और शशिशेखर आदि वहां विराजित थे। हम शहर के प्रशासन, और प्रदेश-देश की राजनीति पर चर्चा कर रहे थे।

तभी लोधीपुरा नम्बर एक की गली के युवा और बच्चों की एक टोली ढोल-ढमाकों के साथ ठेले में गणेशजी के साथ वहां आकर रुकी। देखा कि उनमें अपने छोटे भाई दिनेश भी थे। तभी उनमें शामिल एक युवा ने अपने हाथ में पटा चढ़ाया और प्रदर्शन शुरू कर दिया। मेरी निगाह जैसे उस पर चिपक गयी, क्योंकि ऐसे अवसर पर बचपन से लोगों को पटा, बनेठी, लठ, चाकू, तलवार और बंदिश के खेल का प्रदर्शन देखने का अपन को खूब शौक रहा और युवावस्था में खासकर लठ के वो करतब मैंने भी बहुत शौक से सीखे थे। पाया था कि वह सीखने के बाद खुद में अलग दिलेरी और उमंगों वाला विश्वास हासिल हुआ था।

कल जब उस युवा ने बढ़िया पटा प्रस्तुत किया तो मुझे भी अपनी बाजुएं फड़कती मालूम हुईं। मुझसे रहा न गया। मैंने देखा मेरी कुर्सी के पीछे नीलेश डेरी (नीमा) खड़े थे। नीलेश अपने समय के बहुत दिलेर और जांबाज लड़ाके थे और अभी पश्चिम क्षेत्र की नामचीन सरस्वती डेरी के मालिक, खूब सम्पन्न व यारबाज हैं और खूब जाना-माना नाम हैं। मैंने उनसे पूछा यह लड़का (पटा घुमाने वाला) कौन है ? नीलेश के जवाब ने मुझे हैरत में डाल दिया। वो बोले, ‘बॉस, यह मेरा बेटा है!’

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हैरत मुझे इसलिए हुई कि नीलेश तो खूब सम्पन्न है, उनको किसी बात की कमी नहीं और बेटे को भी खूब अच्छी और ऊंची शिक्षा दिलाई होगी। फिर उसे यह पटा चलाना और शस्त्र कला का प्रशिक्षण कैसे और क्यों दिलाया ? आजकल कौन सक्षम मां-बाप अपनी संतान को पटा, बनेठी, लठ, चाकू, तलवार और बंदिश आदि सिखाने की सोचता है ? फिर ख्याल आया कि आखिर नीलेश के डीएनए में भी खून तो पुराना और उबाल मारने वाला ही है।

बहरहाल लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के लिए गणेशोत्सव का उम्दा विचार देश को दिया था तो उसके पीछे यही भावना थी कि देश का युवा शारीरिक रूप से मजबूत, साहसी और आजादी के संघर्ष के लिए लड़ने-भिड़ने से लेकर कुर्बानी देने तक को एक ‘खेल’ की तरह ले ! जमा उनमें जात-पांत, धर्म और ऊंच-नीच आदि को छोडकर एकता और एक लक्ष्य का संधान करने का भाव सबसे प्रबल हो। हम जानते हैं वो हुआ था और यह भी जानते हैं कि फिर नतीजा क्या हुआ था !

आज ख्याल आता है कि उस शस्त्र कला की बात करें तो हमारा देश और देश के कर्णधार आजादी के बाद उसमें कहीं चूक गए। सोचिए, यदि एक नीति के तहत वो प्रशिक्षण और उन्नत किया गया होता और उसमें प्रवीणता रखने वालों को पुलिस, सेना और सरकारी नौकरियों में सबसे ज्यादा प्राथमिकता देने की नीति अपनाई गई होती तो बतौर समाज और देश अपना यह महान देश कभी का कितना मजबूत नहीं हो गया होता ? आज जिन देशों में अपने हर नागरिक को सैन्य प्रशिक्षण देने का प्रावधान है, वो क्या मूर्ख हैं?

लेखक : चंद्रशेखर शर्मा