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यकीन नहीं आता,लेकिन सच तो यही है कि कमल दीक्षित जी वहां चले गए,जहां से लौटकर कोई नहीं आता। भारतीय हिंदी पत्रकारिता में सरोकारों और मूल्यों की आख़िरी सांस तक रक्षा करते उन्होंने हमें अलविदा कह दिया।
इकतालीस साल पहले उनसे इंदौर में मिला था। पहली ही मुलाकात में वे परिवार के एक बुजुर्ग जैसे लगे थे। उसके बाद हम करीब आते गए। उन दिनों वे नवभारत के संपादक थे। बिहार प्रेस बिल के विरोध में 1983 में हम लोग सड़कों पर आए थे। वह लड़ाई लंबी चली थी। डॉक्टर जगन्नाथ मिश्र को बिल वापस लेना पड़ा था।
तब मुझे उनके भीतर एक जुझारू संपादक और मूल्यों की खातिर लड़ने के जज्बे का अहसास हुआ था । इसके बाद मैं जयपुर में नवभारत टाइम्स का संस्करण शुरू करने गया। पीछे पीछे दीक्षित जी भी जयपुर आ बसे ।वे राजस्थान पत्रिका में समाचार संपादक होकर पहुंचे थे। मैं अकेला रहता था इसलिए मैं भी उनका सामान उठाकर अपने घर ले आया था। हम लोग महीनों साथ साथ रहे। वे लंबी शामें ,पत्रकारिता के स्तर में गिरावट को लेकर उनकी चिंताएं और जयपुर विश्वविद्यालय में एक शानदार पत्रकारिता शिक्षक के रूप में उनका एक नया अवतार था। अक्सर भाई संजीव भानावत के निमंत्रण पर हम साथ साथ पत्रकारिता की कक्षाएं लेने जाया करते थे। दिन भर हम अपनी अपनी नौकरियों में व्यस्त रहते ।शाम होते ही हमारी बैठक जम जाती ।देर रात तक संगीत का आनंद लेते हम सो जाते। उन दिनों लेकिन फ़िल्म आई थी ।उसमें लता मंगेशकर का गीत यारा सीली सीली ,विरहा की रात में जलना उन्हें इतना भाया कि उसकी कैसेट में घंटों यही गीत रिवाइंड करके सुना करते थे।
क्या संयोग था कि मैं 1991 में दैनिक नई दुनिया में समाचार संपादक के पद पर काम करने भोपाल आया तो पीछे पीछे कमल जी भी माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्व विद्यालय में प्राध्यापक के रूप में आ गए ।फिर एक बार पत्रकारिता शिक्षण ने हमें जोड़ दिया। वर्षों तक हम यूं ही साथ साथ चलते रहे। पत्रकारिता शिक्षण के अलावा साइंस सेंटर के कार्यक्रमों में हम लगातार शिरकत करते रहे। इस बीच उन्होंने मूल्यानुगत मीडिया आंदोलन से मुझे जोड़े रखा।
हालात ने करवट बदली। मैं अमेरिका गया तो वहां से फ़ोन पर हमारी लंबी चर्चाएं हुआ करती थीं। फिर मैं दिल्ली की मशीनी ज़िंदगी का पुर्जा बन गया ।लेकिन हमारा संपर्क बना रहा ।दो बरस पहले ही उन पर केंद्रित कार्यक्रम में हिस्सा लेने दिल्ली से आया था।
अभी कोई पंद्रह दिन पहले उनसे फ़ोन पर बात हुई। वे माउंट आबू में थे। उनका व्यक्तित्व प्रजा पिता ब्रह्मकुमारी विश्वविद्यालय के संपर्क में विलक्षण और अलौकिक हो गया था। उनका आभा मंडल अदभुत था। फ़ोन पर वे शिकायती लहज़े में बोल रहे थे कि तुम मूल्यानुगत मीडिया के साथ पूरी तरह क्यों नहीं जुड़ते। मैंने कहा ,अब आप उदयपुर से लौट आइए ।फिर एक दिन बैठकर सब कुछ तय करते हैं। अफ़सोस ! उसके बाद मैं अमरकंटक,पेंड्रा रोड, दिल्ली और इंदौर की यात्राओं में चला गया ।क्या जानता था कि वे भी इन्हीं दिनों अपनी अनंत यात्रा पर निकल पड़ेंगे।वे एक श्रेष्ठ शिक्षक,एक शानदार पत्रकार, एक रीढ़वान संपादक और सबसे बढ़कर एक अनमोल इनसान थे । क्या क्या याद करूं ? मेरे हाथ की चटनियाँ उन्हें बेहद पसंद थीं ।सिल बट्टे पर पीसी हुई । जब जब हम मिलते या कार में साथ यात्रा करते तो यारा सीली सीली ,विरहा की रात का जलना ज़रूर सुनते । कमल जी । ऐसे नही जाना था ।एक बार मेरे हाथ की आंवले की चटनी तो खा जाते । यारा …. भी सुन लेते । नहीं भूल सकूंगा। जाना तो सबको है ।हम सब कतार में हैं ।मगर थोड़ा बता तो देते ।मुझे पता है ।आपकी निजी ज़िंदगी के झंझावात आप किसी से शेयर नहीं करते थे। मैं उन क्षणों का साक्षी हूं । अपने सारे रंजोगम भूलकर आप सिर्फ़ मुस्कुराते रहते थे। आपके दिल में आक र बड़े बड़े दर्द पिघलकर बह जाते थे।बचता था तो कुछ कुछ डबडबाई आंखों भरा मुस्कुराता चेहरा। यहां दो श्वेत श्याम चित्र ,जब हमने 1983 में बिहार प्रेस बिल के विरोध में कमिश्नर श्री कौल को ज्ञापन दिया था ।कमल जी नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट के अध्यक्ष थे और मैं महासचिव । एक रंगीन चित्र 1991 में जयपुर के मेरे घर में। तब हम साथ रहते थे। नए साल का स्वागत करने वाली शाम का चित्र । एक अन्य चित्र उन पर केंद्रित कार्यक्रम का है।