किसान आंदोलन और राजनीति

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(7 जून, 2018 को लिखा गया मेरा यह लेख वर्तमान परिस्थितियों में मैं इसे दुबारा प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसके अतिरिक्त कुछ और लेख भी किसान समस्या पर मैंने हिंदी और अंग्रेज़ी में विगत वर्षों में लिखे हैं।)

भारतीय किसान महासंघ के तत्वावधान में किसानों का अखिल भारतीय आन्दोलन चल रहा है जो अभी तक शान्तिपूर्ण है। आन्दोलन मे सबसे ग़रीब पूर्वी भारत तथा समृद्ध दक्षिण भारत की कोई भागीदारी नहीं हैं। मध्य प्रदेश में भी यह पश्चिम क्षेत्र मे ही सीमित है। किसानों की मुख्य माँगे सभी प्रकार की ऋण माफ़ी तथा स्वामीनाथन आयोग के अनुसार फ़सलों का उचित मूल्य दिलाये जाने की है।किसान तथा भूमि को लेकर यह पहला आन्दोलन नहीं है तथा न हीं यह अन्तिम होगा। निकट इतिहास में महात्मा गांधी के पवित्र चम्पारन आन्दोलन से लेकर टिकैत के उन्मादी आन्दोलन तक हो चुके है।हमारे अधिकांश करोड़पति सांसद भी अपने को अभिलेखों मे कृषक बताते हैं। अनेक पार्टियां तो केवल किसान पार्टी ( हरी पगड़ी) कहलाती हैं।

कल मन्दसौर मे राहुल गांधी की शानदार किसान सभा हुई। उन्होंने म प्र मे सत्ता मे आने पर किसानों के ऋण माफ़ करने की घोषणा की।ख़ूनी फ़ायरिंग की वर्षगाँठ होने से वातावरण भी भावुक था। लेकिन सभा मे शामिल होने वाले किसान तक यह जानते हैं कि ऋण माफ़ी की घोषणा तो बहुत मामूली बात है— अनेकों सरकारें कर चुकी हैं । सत्ता के लिये बजट मे कटौती कर उसी ग़रीब को आसानी से चोट दी जा सकती है। संभव है कि किसान की पीठ को सीढ़ी बनाकर कांग्रेस सिंहासन तक पहुँच जाये।यह भी हो सकता है कि कांग्रेस को क़र्ज़ माफ़ करना ही न पड़े और शिवराज सरकार पहले ही यह कारनामा दिखा दे।

किसानों की दूसरी माँग पर पक्ष विपक्ष सबने चुप्पी साध रखी है। आयोगों ने कहा है कि किसानों को फ़सल की लागत का डेढ़ गुना मूल्य मिलना चाहिये। किस किसान को ? किस फ़सल का ? भारत के आधे किसानों के पास कुल भूमि का मात्र 3% है। ये सीमांत किसान जीवित कैसे रहता है ? सीमांत किसान न आन्दोलन मे जाते है और न हीं मंडी में। वे अपनी चन्द बोरियाँ गाँव के ही सूदखोर को आधे पौने में बेच देते हैं क्योंकि उनका ऋण सरकार से नहीं बल्कि उसी सूदखोर से आता है। उन पर सरकारी ऋण माफ़ी तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य आदि लागू ही नहीं होते हैं।भूमिहीन खेतिहर मज़दूर की बात तो भगवान के भरोसे ही छोड़ दीजिए।

ख़ैर इन ग़रीबों को छोड़िये और आइये मध्यम और बड़े किसानों पर। ईस्ट इंडिया कम्पनी के ज़माने के क़ानूनों के अन्तर्गत वह अपनी हर फ़सल मंडी मे बेचने के लिये विवश है। कुछ अनाजों को छोड़कर अन्य सभी फ़सले ( फल, सब्ज़ी, कैश क्रॉप्स) मंडी मे निलाम होती है।बिचौलिये अपना खेल खेलते हैं तथा सस्ती ख़रीदी कर आसमान के भावों पर शहरी उपभोक्ता को बेचते है। ये बिचौलिये हमारी गली के व्यापारी से लेकर नासिक के धनाढ्य प्याज़ व्यवसायी तक हो सकते है। इन बिचौलियों को समाप्त क्यों नहीं किया जा सकता जिससे किसानों को ज़्यादा दाम और उपभोक्ताओं को सस्ता खाद्य मिल सके ? एक करण यह है कि कोई तो खाद्य सामग्री को किसान से आप तक पहुँचायेगा । दूसरा और प्रमुख कारण यह है कि ये सब बिचौलिये सभी राजनैतिक पार्टियों को प्रभावित करते हैं ।

सच्चे किसान हितैषी लाल बहादुर शास्त्री ने पहला कृषि आयोग बनाया परन्तु उस पर काम करने का उन्हें जीवन नहीं मिला । उसके बाद अनेक स्थायी तथा अस्थायी आयोग बने पर कोई मूलभूत सुधार नहीं हुआ। समस्या का हल क्या है ? बिचौलियों को हटा कर कुछ नया सोचा जाय। किसान की फ़सल शीघ्र नष्ट होने वाली होती हैं जिससे उसे ब्लैकमेल किया जा सकता है। उसे अत्यंत विशाल स्तर पर सस्ते गोदाम तथा कोल्ड स्टोरेज चाहियें । मंडी की ज़ंजीरें तोड़ कर उसे बाज़ार मे खड़े होने का अवसर मिलना चाहिये। उसे लम्बी अवधि तक मूल्य का क़रार चाहिये। यह कौन करेगा ? इसके लिये लाखों करोड़ की धनराशि चाहिये। यह सरकारों की ताक़त के बाहर है। भारतीय उद्योगपतियों के भी बूते की बात नहीं है। जो कर सकता है उसका नाम राजनैतिक पार्टियाँ सार्वजनिक मंच से ले नहीं सकती— बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ। ऐसा नहीं है कि भारत मे ऐसी कम्पनियाँ नहीं है। हर पार्टी FDI लाने की बात भी करती है । यह भी सही है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ उपकार करने नहीं आतीं हैंऔर आतीं है तो अपनी शर्तों पर आना चाहती हैं ।इन कम्पनियों से सबसे बड़ा ख़तरा अपनी सरकारों का कमज़ोर तथा भ्रष्ट होनाहै वरना यही कम्पनियाँ चीन की सरकार के आगे घुटने टेकती हैं। कुल मिलाकर देश को विकल्पों पर विचार करना होगा और कुछ तो करना ही होगा। आशा है कि राजनैतिक नेता और मीडिया के टीकाकार इस पर देश का मार्गदर्शन करेंगें। हमारे देश मे स्पष्ट ( और अप्रिय ) निर्णय लेने मे दशकों लगते हैं इसीलिये फ़िलहाल किसान आन्दोलन चलते रहेंगे और क़र्ज़ माफ़ी होती रहेगी !