मौत पर जश्न; पत्रकारिता के लिए खतरे का अलार्म

Shivani Rathore
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Journalist

पुष्पेन्द्र वैद्य

पत्रकार रोहित सरदाना की मौत की ख़बर के बाद अचानक देशभर से अप्रत्याशित प्रतिक्रियाएँ आने लगी। मैंने अपने जीवन में पहली बार किसी की मौत के तुरंत बाद मातमी टिप्पणियों के बीच इस तरह का जश्न भरी और खरी-खोटी प्रतिक्रियाएँ देखी,पढी और सुनी। मौत के बाद इस तरह की एडवर्स बातें इंसानियत के सख्त खिलाफ हैं। तमाम असहमतियों या नफरत के बावजूद उसकी मृत्यु पर इस तरह उसके खिलाफ अनर्गल टिप्पणियाँ बेहद आपत्तिजनक ही नहीं शिष्टाचार और नैतिकता-मानवता के नाते भी शर्मसार कर देने वाली है। हालाँकि कई लोगो ने इसे लेकर आलोचना करने वालों को जमकर आड़े हाथों भी लिया है। बहस चल पड़ी है।

इन सबके बीच कुछ बाते मेरे भीतर लगातार घर करती जा रही हैं। करीब एक-डेढ़ दशक पहले तक जिस पत्रकारिता को एक इज्ज़तदार पेशा माना जाता रहा, तब पत्रकार यानी समाज के हितों का पैरोकार। उसके प्रति लोगो का नज़रिया इधर अनायास क्यों बदल गया। क्यों लोग इतना मुखर हो रहे हैं कि मौत के तुरंत बाद इस कदर अपना गुस्सा उतार रहे हैं। दरअसल यह बिंदु पत्रकार बिरादरी या इस पेशे से जुड़े लोगों के लिए एक गंभीर चिंतन का विषय है। एक बार हमें खुद इस पर आत्मचिंतन करना चाहिए। यह कड़वा सच है कि ऐसी आलोचना पत्रकारिता के लिए नैतिक पतन की पराकाष्ठा है। शायद इससे बड़ी आलोचना कोई दूसरी नही हो सकती। हमें जरुरत है एक बार खुद अपनी गिरेबां में झाँकने की।

दिल्ली में बैठे पत्रकारिता के मठाधिशों के लिए यह दिन एक बड़ा अलॉर्म है। ज्यादातर मठाधीश पत्रकार दरअसल अपनी पत्रकारिता के पेशे को कहीं दूर हाशिये पर धकेल अपने संस्थान, व्यवसाय, टीआरपी, सत्ता से मिलने वाले लाभ के भँवर जाल में इस कदर उलझ चुके हैं कि उनके लिए अब पत्रकारिता के कोई मायने ही नहीं रह गए हैं। बीते कुछ एक दशक में दिखने लगा है कि पत्रकारों, न्यूज चैनलों और अख़बारों पर सत्ता या राजनीतिक पार्टियों की मुहर चस्पा हो चुकी है।

पत्रकारिता को जीने वाले कुछ खुद्दार किस्म के पत्रकार अपने संस्थानों के दबाव से दूर यूट्यूब को हथियार बना कर अपने वजूद की लडाई जरुर लड़ रहे हैं। लेकिन इनमें भी जनहित से ज्यादा एक्सट्रीम दिखाई देती है। हो यह रहा है कि पत्रकारों और संस्थानों में भी दो तरह के गुट या गैंग बन गई है। एक वह जो सत्ता के साथ खड़े हैं और दूसरे वह जो सत्ता के खिलाफ हैं। दोनों ही तरह की वैचारिक कट्टरताएँ प्रजातंत्र और पत्रकारिता के लिए नासूर बनती जा रही है। सीधी सी बात है विचारधारा और पत्रकारिता दोनों एक दूसरे के विपरीत होने चाहिए। पत्रकार तटस्थ होना चाहिए। पत्रकार में सही को सही और गलत को गलत कहने का साहस होना चाहिए। लेकिन मौजूदा वक्त में पत्रकार सही को भी गलत और गलत को सही करार देने पर आमादा है। वह भी किसी भी हद तक। बुरा देखने पर भी सत्ताधारी दल की तारीफ और अच्छा देखते हुए भी बुराई करना किसी कट्टरपंथी की तरह साफ-साफ मीडिया में दिखाई देने लगी है।

आज किसी सड़क चलते आम आदमी से पूछ लीजिए, वह बता देगा कौन सा चैनल किस पार्टी के साथ खड़ा है। यहाँ तक कि सोशल मीडिया पर आए दिन चैनल और उनके मालिकों के जोक भी वायरल हो रहे हैं। मठाधीश बने बैठे कथित बड़े पत्रकारों को कभी अपने पाँच सितारा दफ्तरों की चकाचौंध से बाहर निकल कर देखना चाहिए कि अब लोग आप पर हँसने लगे हैं। राष्ट्रवादी, राष्ट्रद्रोही, टुकड़े-टुकड़े गैंग… जैसे शब्द अब मीडिया के लिए भी इस्तेमाल किए जाने लगे हैं।

आज से एक-डेढ़ दशक पहले तक लोग चैनलों और अख़बारों में भरोसा रखते थे। मीडिया संस्थान जनहित के मुद्दों की आवाज उठाने वाले पैरोकार नजर आते थे। समाज और प्रजातंत्र मीडिया को चौथे स्तंभ की तरह वाकई देखता था लेकिन आज यदि गलती से कोई जनहित का मुद्दा उठाया भी जाए तो उसमें यह पड़ताल की जाने लगती है कि इसके पीछे मीडिया का क्या लालच है। हम अपनी विश्वसनियता को खुद ही खो चुके हैं। बची-खुची साख को अपने पाप धोने के लिए टूल बनाने वाले काले कारोबारियों, नेताओं, माफियाओं और सफेदपोश लोगों ने बर्बाद कर दी। मीडिया संस्थान ऐसे लोगों के हाथों में लगातार जा रहे हैं जिन्हें पत्रकारिता की एबीसीडी भी पता नहीं है। उन्हें सिर्फ़ यही पता है कि मीडिया यानी काले कारनामों पर पर्दा गिराने का एक माध्यम है। बस इससे ज्यादा कुछ नहीं।

पत्रकारिता के नैतिक पतन के लिए मैं सबसे बड़ा गुनाहगार उन मठाधीशों को मानता हूँ जिन्होंने अपने या संस्थान के स्वार्थ के लिए पवित्र पत्रकारिता की आत्मा को सरेआम निलाम कर दिया। आज से दस बरस पहले तक जब हम माइक आईडी लेकर गाँव-शहरों में जाते थे तो लोग इज्जत से देखते थे। लोग यह नहीं जानते थे कि इस चैनल का मालिक कौन है, वह किस पार्टी से जुड़ा है, उसकी विचारधारा क्या है। बस टीवी या अख़बार के ज़मीनी पत्रकार ही संस्थान का आईना होते थे। मुख्यमंत्री तक भी स्थानीय पत्रकारों से ही संबंध निभाते थे। अब छोटे से छोटा नेता या ब्यूरोक्रेट भी सीधे दिल्ली में बैठे चैनल के मालिक से दोस्ती गाँठ कर एक-दूसरे के हितों को साधने में जुटे रहते हैं। ऐसे में भला ज़मीनी पत्रकारों को कौन पूछेगा। समाचार-पत्रों या टीवी चैनलों से जनहित के मुद्दे दूर होते जा रहे हैं। ग्राउंड रिपोर्ट में किसी की कोई दिलचस्पी नहीं बची है।

इन सबके बीच पत्रकारिता को मिशन मानकर इस पाठ्यक्रम को पढने या इसमें अपना केरियर बनाने वाली नई पीढी को हम क्या जवाब देंगे। क्या मुँह दिखाएँगे। आपकी विचारधारा चाहे जो भी हो लेकिन आपके भीतर का पत्रकार कभी मरना नहीं चाहिए। यदि आप विचारधारा को आगे बढा रहें है तो फिर आप पत्रकार नहीं हो सकते। अब जनता जागरुक है। ‘यह पब्लिक है, सब जानती है’ सिर्फ़ स्लोगन नहीं बल्कि हकीकत है। यही वजह है कि मुख्यधारा के मीडिया से लोगो को अलगाव हो गया है। सोशल मीडिया जबर्दस्त शक्तिशाली ताकत बनकर उभर रहा है।

दिल्ली के मठाधीशों..!! अपने स्वार्थ को किनारे किजिए नहीं तो जनता मरने के बाद आपको भी छोड़ेगी नहीं। यदि हम पत्रकारिता के मूल्यों को फिर से ज़िंदा करने का संकल्प लेंगे तभी अगली पीढ़ी के लिए कुछ बचाया जा सकेगा। रोहित सरदाना की मौत के बाद देश में कटु आलोचना की बात यह साबित करती है कि एक पत्रकार का सबसे बड़ा गुण तटस्थ किस्म की पत्रकारिता होना चाहिए। याद रखिए यह ट्रेंड हम पत्रकार बिरादरी के लिए खतरे की घंटी है। कट्टरता को त्याग हमे जनता की भलाई के असली मुद्दों के तरफ लौटना पड़ेगा।