कमलेश पारे
सितम्बर का महीना आते आते हम सब पर ‘शिक्षा’ की ‘सवारी’आने लगती है। हर आदमी,जो जहां है,शिक्षा को लेकर बहुत बड़ी बड़ी बातें करने लगता है।लेकिन,फिर सब भूल जाते हैं।
सब जानते और कहते हैं कि शिक्षा ही देश और समाज के भविष्य की तैयारी का सबसे पहला साधन है। बावजूद इसके,ये बातें अगला महीना आते आते भुला भी दी जाती हैं।
जनता या नागरिकों की तरह, हमें तो कभी भी किसी से कोई लेना-देना रहा नहीं,और राजनीति अपनी आदत के तहत तेजी से बहते हुए अपने किसी अगले काम में लग जाती है।
तारीफों के पुल बांधने या सपने दिखाने के लिए उन्हें कोई अगला विषय मिल जाता है।
ताजा हालात पर बात करें तो सबको पता है कि विश्व पर आई भीषण आपदा ‘कोविड’19’ में सब कुछ तहस नहस हुआ है।
निश्चित रूप से शिक्षा भी इसमें शामिल है। भारतीय संसद की एक संयुक्त समिति ने मान लिया है कि इस काल में हुआ ‘लर्निंग लाॅस’ देश और समाज का स्थाई नुकसान है।
हालांकि स्कूल अपनी निर्धारित शर्तों पर खुल गये हैं,पर पूरी संख्या में विद्यार्थी नहीं लौटे हैं।उक्त संसदीय समिति ने यह अंदाज लगा लिया है कि 20% से अधिक बच्चे अब शायद ही कभी लौटकर स्कूल में आएं,क्योंकि वे अपने परिवार की सहायता के लिए किसी न किसी छोटे काम में लग गए हैं,या बंधुआ मजदूर हो गये हैं।
इसी तरह निजी स्कूलों के संचालकों का कहना है कि एक बड़ी मात्रा में शिक्षक भी नहीं लौटे हैं।क्योंकि, उन्होंने इस रोजगार को अस्थाई मानते हुए कोई और काम कर लिया है।
आपने पढ़ ही लिया होगा कि नौकरियां जाने पर शिक्षकों में से किसी ने ‘हेयर कटिंग सैलून’ खोल ली है, तो कोई सब्जी बेचने लगा है। कहते हैं कि बड़ी संख्या में नौकरी गंवा कर बैठे शिक्षकों ने ‘डिलीवरी ब्वॉय’ का काम भी शुरू कर दिया है।
कोरोना काल में अकेले महाराष्ट्र में 60 हजार और कर्नाटक में 40 हजार शिक्षकों का रोजगार गया था।
एक संस्था है ‘सेन्टर फार मानीटरिंग आफ इंडियन इकानामी’।उसके एक अध्ययन के अनुसार भारत में निजी शिक्षण संस्थाओं के कुल 57 प्रतिशत शिक्षकों की इस काल में या तो नौकरी गई है, या उनके वेतन में असहनीय भीषण कटौती हुई है।
इसलिए अभी अभी स्कूल खुलने के बावजूद वे शिक्षक भी काम पर नहीं लौटे हैं।उनकी कमी शिक्षा की गुणवत्ता को बुरी तरह से प्रभावित कर रही है,क्योंकि या तो वे प्रशिक्षित थे या अनुभव के आधार पर शिक्षा की गुणवत्ता को बरकरार रखे हुए थे।अब वापस बुलाने पर वे जो वेतन मांग रहे हैं, वह निजी स्कूलों के संचालक नहीं दे सकते।
इसी काल में सेवानिवृत्ति,स्थाई विकलांगता या मृत्यु ने भी शिक्षकों की इस कमी में बड़ा योगदान दिया है।वह प्रतिशत भी बड़ा ही है।
आपदा की बात छोड़ दें,तो भी हमारे यहां स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। हम चाँद पर जा चुके हैं,दुनिया की सबसे तेज आगे बढ़ती हमारी अर्थव्यवस्था है,और एशिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक ताक़त भी हम हैं।लेकिन,यह सब होते हुए हमारे देश के स्कूलों में जरूरत के मान से सिर्फ आधे ही शिक्षक हैं। जो हैं,उनमें भी आधे,’कच्ची नौकरी'(एड-हॉक) वाले हैं।
स्कूलों में उपलब्ध साधनों की स्थिति तो और भी ख़राब है। एक ही बात कि दिव्यांग बच्चों के लिए विशेष प्रशिक्षण प्राप्त शिक्षकों की संख्या में अपने यहां 75 प्रतिशत की कमी है। यह बात भी लोकसभा में मानव संसाधन मंत्रीजी ने स्वयं स्वीकार की है.
शिक्षा के ‘संवैधानिक मूल-अधिकार’ के बावजूद,सर्वशिक्षा अभियान के चलते और जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम के रहते अपने देश में लगभग 20 प्रतिशत बच्चे आज भी स्कूल नहीं जाते व वे ‘बाल-श्रमिक’ हैं।
यानी साढ़े तीन करोड़ बच्चे आज भी स्कूल नहीं जाते हैं।जबकि ‘संवैधानिक अधिकार’ की सुनिश्चितता और दोनों बड़े राष्ट्रीय कार्यक्रमों पर बजट से बहुत बड़ी राशि जाती है।
भारत के ग्रामीण अंचलों में जो बच्चे स्कूल जाते भी हैं, उनमें से पहली कक्षा में भर्ती हुए आधे से ज्यादा बच्चे आठवीं कक्षा तक नहीं पहुँच पाते हैं।
इन दुखद आंकड़ों की चर्चा कर या इन्हें याद करवाकर यहां किसी के भी विरोध का या किसी को नीचा दिखाने का इरादा क़तई नहीं है।आप सबको इस दुःख में शामिल करने की एक छोटी सी कोशिश मात्र है।
हमारे देश में बच्चों और युवकों की संख्या 48 करोड़ से ज्यादा है। यानी आधी के आसपास आबादी युवा है। निर्णय की प्रक्रिया में भागीदार बनने वाले ये नए-पुराने बालिग,या बालिग़ होने को तैयार खड़े अधिकांश लोग गाँवों में रहते हैं। इनकी शिक्षा या प्रशिक्षण की हमारी तैयारी सचमुच में दयनीय है।
यह सब जानते हुए भी यदि हमने शिक्षा को इतने ‘अनमने’ ढंग से लिया, या गफलत में ही रहे,तो साफ़ है कि भविष्य अच्छा नहीं होगा।
जॉर्ज ऑरवेल ने एक जगह कहा था कि “जैसे किसी संपत्ति का दाम और महत्त्व सिर्फ,सिर्फ और सिर्फ उसके स्थान या पते के कारण होता है,वैसे ही शिक्षा और शिक्षक की उपयोगिता और महत्व सिर्फ,सिर्फ और सिर्फ उनकी गुणवत्ता के कारण होता है”।
आज सारे कारण मौजूद हैं कि शिक्षा की इस गुणवत्ता के पैमाने पर हमें भरपूर निराशा हाथ लगती है।
अपने मध्यप्रदेश में ही फ़िलहाल कार्यरत साढ़े छह लाख शिक्षक आवश्यक या समुचित योग्यता नहीं रखते हैं।
मात्र एक दो साल पहले ही एक पड़ौसी राज्य में शिक्षकों की भर्ती-पूर्व परीक्षा में 95 प्रतिशत उम्मीदवार फेल हो गए थे। एक और राज्य में ऐसी ही परीक्षा में सौ में से दो ही परीक्षार्थी पास हो पाए। ऐसी हालत में ‘फेल’ हुए लोगों को भी ‘पास’करना पड़ा था।
यही कारण है कि जिस दिन भी टीवी वालों के पास कोई खबर नहीं होती,वे किसी भी सरकारी स्कूल में चलती क्लास में,हमलावर की तरह अपना कैमेरा लेकर धमक जाते हैं, और वहां पढ़ा रहे गुरूजी से वन-टू-थ्री,जनवरी-फरवरी या सन्डे मंडे की स्पेलिंग पूछने लगते हैं। तब गुरूजी से ज्यादा अपनी शिक्षा व्यवस्था को शर्मिंदा होना पड़ता है।
इसलिए ‘शिक्षक दिवस’पर जिम्मेदारियों और योगदान की चर्चा के साथ,शिक्षा की गुणवत्ता की बात भी जरूर होना चाहिए।
हम सब जानते हैं कि अपने देश में शिक्षकों के लिए बी एड,एम एड या डी एड जरुरी शैक्षणिक योग्यताएं हैं।लेकिन इन डिग्रियों या डिप्लोमा को बांटने वाली 90 प्रतिशत संस्थाएं निजी हैं,जो दुकानों की तरह चलती हैं।ये दुकानें डिग्रियों और प्रमाण-पत्रों की बिक्री करती हैं।
कई जगहें तो ऐसी भी हैं,जहाँ ताला लगे बरसों हो गए,पर डिग्रियों की खरीदी-बिक्री जारी है।
यदि हमें अपने देश का भविष्य ज़रा भी दिखता है,तो इधर नज़र डालना बहुत जरूरी है। एक मजेदार तथ्य पर शायद कम लोगों की निगाह गई हो कि जितना बजट हमारी सरकार ने कभी दिल्ली में हुए एशियन खेलों पर दिया था,उससे भी आधा बजट ‘शिक्षा के मूल संवैधानिक अधिकार’की प्राप्ति हेतु दिया गया है।
यही कारण है कि शिक्षा की गुणवत्ता पर न हम बात करते हैं, और न वह हमारे यहां मिलती है।जबकि हम उसकी गुणवत्ता के लिए खर्च पूरा करते हैं।
आप ही ईमानदारी से बताएं कि फीस( दाम) या बड़े शासकीय खर्च के बदले,हमारी अपनी मांग गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की है क्या ?
कितने लोगों को मालूम है कि उनका बच्चा क्या पढ़ रहा है,या उसे क्या पढ़ाया जा रहा है.
कितने जन प्रतिनिधियों ने दबाव बनाकर या प्रश्न पूछकर स्कूलों और कालेजों में शिक्षा के लिए सारे के सारे आवश्यक साधनों और पूरे शिक्षकों की उपलब्धता सुनिश्चित की है।यानी व्यापक स्तर पर समाज ही इसको जरूरी नहीं समझता।इसी के चलते अपने यहां विद्यार्थियों में नंबर और स्कोर की भूख तो है, पर ज्ञान की भूख बिलकुल नहीं है.
आज पैसे वाले ज्यादा पैसे खर्च कर,चमकदार डिग्रियां तो ले लेते हैं,पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा कहाँ है। इसलिए कि शिक्षा की भूख कहीं नहीं है।
और हां,1962 में ‘चैरिटेबल एन्डोमेंट एक्ट 1890’ के तहत एक ‘नेशनल फाउंडेशन आफ टीचर्स वेल्फेयर’ बना था। उसमें राष्ट्रीय बजट से प्रतिवर्ष एक निर्धारित राशि जाने का प्रावधान था।
मानसिक,शारीरिक,सामाजिक और आर्थिक संकट का एक दर्दनाक जलजला आकर गुजर गया, लेकिन किसी को भी न तो ‘शिक्षक कल्याण’ के इस कोष का पता चला, और न प्रतिपक्ष को इस पर सवाल पूछने का समय मिला।