‘काली’ का मनमाना चित्रण और धार्मिक उदारता की परीक्षा

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अजय बोकिल

लगता है ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ की आड़ में विद्रोही तमिल फिल्मकार लीना मणिमेखलई ने हिंदुओं की धार्मिक आस्थाओं को ठेस पहुंचाने की सुपारी ले ली है। हिंदुओं की देवी काली के ‍विवादित और बहुनिंदित पोस्टर के बाद उन्होंने शिव और पार्वती के सिगरेट पीते ट्वीट किए। इस अदा के साथ कि कोई कुछ कहे, वो वही करेंगी, जो उन्हें कहना या करना है। लीना इस समय कनाडा में हैं। अपनी करतूत से स्वदेश में हो रही प्रतिक्रिया से बेफिक्र लीना ने कहा कि काली को कोई नहीं मार सकता। क्योंकि काली मृत्यु की देवी हैं।

लीना के इस ‘काली’ चित्रण से वैचारिक सहमति रखने वाली तृणमूल कांग्रेस ( टीएमसी) सांसद महुआ मोइत्रा ने कहा है कि वो काली को अपने हिसाब से देखती और पूजती हैं और भाजपाई हिंदुत्व से इत्तफाक नहीं रखती। हालांकि खुद उनकी पार्टी टीएमसी ने महुआ के बयान से दूरी बना ली है, क्योंकि काली का मुद्दा पश्चिम बंगाल के बहुसंख्यक हिंदुओं की गहन आस्था से जुड़ा है और सर्वसमावेशी सेक्युलर राजनीति करने वाली टीएमसी को राजनीतिक नुकसान पहुंचा सकता है। उधर नूपुर मामले में कुछ बैक फुट पर दिखी भाजपा काली मुद्दे पर फिर आक्रामक हो गई है। तमाम भाजपा शासित राज्यों में महुआ और लीना के खिलाफ मुकदमे दर्ज हो गए हैं। दोनो की
गिफ्तारी की मांग की जा रही है।

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कुल मिलाकर हिंदुओं की देवी ‘काली’ के विकृत चित्रण का मामला पूरी तरह राजनीतिक संग्राम में बदल गया है। लेकिन इससे हटकर सवाल यह भी है कि ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ के लिए लोगों को देवी देवता ही क्यों मिलते हैं? वो भी हिंदुओं के ? यह हिंदुओं की धार्मिक उदारता की परीक्षा है या उसे बेशर्म चुनौती है? दिलचस्प बात यह है कि भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा द्वारा पैगम्बर मोहम्मद को लेकर की गई विवादित टिप्पणी के बाद जो भाजपा एक हद तक बैक फुट पर दिखाई दे रही थी, वही काली विवाद प्रकरण में आक्रामक है और टीएमसी नूपुर मामले में बेहद आक्रामक और सेक्युलर झंडा उठाए हुए थी, वो इस संदर्भ में अपनी ही सांसद का बचाव करने से भी बच रही है।

क्योंकि उसे मालूम है कि नूपुर प्रकरण में उसे अल्पसंख्यदक वोटों का जो फायदा मिला था, वो काली प्रकरण में हाथ से फिसल न जाए। क्योंकि यहां मामला हिंदू-मुस्लिम न होकर बहुसंख्यक हिंदू बनाम‍ हिंदू होता जा रहा है। सनातनी हिंदू बनाम सेक्युलर हिंदू होता जा रहा है। उस बंगाल में जहां दीवाली पर धन की देवी महालक्ष्मी से भी ज्यादा महत्व काली पूजा का है। इस विवाद का आगाज तमिलनाडु से हुआ। उस तमिलनाडु से जहां काली पूजा की परंपरा हजार साल से भी ज्यादा समय से है। तमिलनाडु में काली का स्वरूप ‘कालजयी’ देवी के रूप में है। काली यानी कृष्णवर्णी देवी, जो काल से परे है। प्रलय के समय काली भयंकर नृत्य करती है, जिसे वहां ‘प्रलय तांडवम्’ कहा जाता है।

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इसी सर्वमान्य देवी काली को लेकर विवाद युवा तमिल फिल्मकार, अभिनेत्री, कवियित्री और विद्रोही विचारों की लीना मणिमेखलई की नवीनतम विवादास्पद डाॅक्युमेंट्री ‘काली’ के उस पोस्टर से शुरू हुआ, जिसमें काली का स्वांग लिए एक अभिनेत्री को सिगरेट पीते दिखाया गया है। उसके हाथ में समलैंगिक समुदाय एलजीबीटी का झंडा भी है। जैसे ही यह पोस्टर सोशल मीडिया में वायरल हुआ, लोगों ने इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। यह फिल्म कनाडा में हो रहे डाक्युमेंट्री फिल्म फेस्टिवल में भेजी गई है। बेशक काली के पुराणों और शास्त्रों में कई रूप वर्णित हैं, लेकिन काली के इस ‘धूम्रपान रूप’ का उल्लेख तो नहीं है।

खुद को उभयलिंगी, सामाजिक न्याय की पक्षधर बताने वाली लीना ने पहले भी कई फिल्में बनाई हैं, उन पर भी सवाल उठे हैं, लेकिन देवी ‘काली’ का यह मनमाना और काल्पनिक चित्रण तो विकृत सोच की उपज ज्यादा लगता है। हिंदू शास्त्रों में वर्णित काली राक्षसों का संहार करती है, नरमुंडों की माला पहनती है, रक्तपान करती है, लेकिन वह धूम्रपान भी करती है और समलैंगिकता को धार्मिक औचित्य भी प्रदान करती है, ऐसा तो कहीं नहीं हैं। काली संहार भी करती है तो सृजन के लिए करती है। लेकिन लगता है कि फिल्मकार लीना काली के माध्यम से समाज में उस विचार को स्थापित करने की कोशिश करती‍ दिखती हैं, जो आज भी समाज में बहुमान्य नहीं है।

‘काली’ के इस पोस्टर का कनाडा में रहने वाले हिंदुओं और भारतीय उच्चायोग ने भी विरोध किया। परिणामस्वरूप इस फिल्म के पोस्टर हटा दिए गए और आगा खान म्यूजियम से यह डाक्युमेट्री हटा दी गई। उधर इस फिल्म की निर्माता लीना मणिमेखलई का कहना है कि वो अपनी बात पर कायम हैं और रहेंगी, भले ही इसके लिए उन्हें अपनी जान भी देनी पड़े। लीना ने जो दुस्साहस किया, उसे कुछ लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और हिंदू धर्म की मूलभूत उदारता से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। यह उदारता भी वास्तव में हिंदुओं के बहुदेववाद से आई है, जहां आराधना और आराध्य के कई विकल्प मौजूद हैं।

एक देव, एक किताब, एक पूजा पद्धति और एक ही जीवन शैली का निष्ठुर आग्रह नहीं है। हिंदू कई उपासना पद्धतियों को मान्य करते हैं। इसीलिए हमारे शास्त्रों में देवों के स्तुतिगान के साथ साथ कहीं कहीं आलोचना के सुर भी हैं। दुनिया में हिंदू धर्म ही एक मात्र ऐसा धर्म है, जिसमें ‘नास्तिक’ को भी धर्म से बेदखल करने की अनुदारता नहीं है। इसी संदर्भ में बुद्धि के देवता गणेश जितना उदार और सहिष्णु देव तो कोई भी नहीं है, जिसकी प्रतिमाओं के निर्माण और भाव प्रदर्शन में मूर्तिकार मनमाफिक छूट लेते रहे हैं। लेकिन कभी इसे देवता की अवमानना नहीं माना गया।

लेकिन इसका अर्थ यही भी नहीं कि इस उदार भाव को मनगढ़ंत और दुर्भावना के रंग में रंगने की कोशिश की जाए। इसकी आड़ में कोई एजेंडा चलाने की कोशिश की जाए। हो सकता है लीना आधुनिक समय की ‘काली’ चित्रित करना चाहती हों, लेकिन काली तो सार्वकालिक है। बदलती सभ्यताओं के साथ देवताओं के स्वरूप आम तौर पर नहीं बदलते। उनमे कुछ संशोधन भले हो, लेकिन उनका मौलिक स्वरूप वही रहता है। हमारे देवता इसीलिए देवता हैं कि वो मानवीय कमजोरियों से परे हैं, लेकिन वो इतने निरीह भी नहीं हैं कि कोई भी उनके स्थापित और मान्य स्वरूप से मनमर्जीनुसार छेड़छाड़ करता रहे और लोग उसे सृजनात्मक उदारता के आईने में देख कर नपुंसक हंसी हंसते रहें।

बावजूद तमाम तर्कों के दरअसल आस्था किसी भी मूर्त-अमूर्त देवता में हो, किसी वाद में हो, विचार में हो, किसी पद्धति में हो, वह उसे विकृत रूप में कभी स्वीकार नहीं करती। कोई माने न माने लेकिन तार्किकता के सीमांत से ही आस्था का अनंत उपवन शुरू होता है। भले ही इसकी परिणति कट्टरता और असहिष्णु ता तथा अपनी धार्मिक मान्यताओं की किसी भी कीमत पर रक्षा के रूप में क्यों न हो। इसका रचनाकार, पालनहार और पहरेदार भी मनुष्य ही है। कुछ लोगों का मानना है कि आस्था प्रश्नाकुलता को खारिज करती है। यह बात एक हद तक सही है, लेकिन आत्म ज्ञान से अर्जित उत्तर सामान्य व्यक्ति के लिए आस्था का असंदिग्ध मार्ग ही तैयार करते हैं।

हिंदुओं के देवता स्वयं ब्रह्म होने की घोषणा तो करते हैं, लेकिन उन्हें किसी खास रूप में ही स्वीकार किया जाए, इसकी आचार संहिता लागू नहीं करते। इसीलिए हिंदू धर्म इतर धर्मों से नितांत अलग और मानवीय और आध्यात्मिक मूल्यों की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ है। लेकिन इसका यह तात्पर्य नहीं कि आराध्य देवताओं के साथ कोई कुछ भी करने का हकदार है। यह स्थिति शायद इसलिए भी बनी है, क्योंकि एकेश्वरवाद, एक पूजा पद्धतिवाद, एक जीवन शैली वाद और अपने आराध्य की खातिर नरसंहार को भी सर्वथा उचित ठहराने वाले वाद से स्वयं उदारवाद को ही जानलेवा खतरा उत्पन्न हो गया है। वो करे तो क्या करे? कब तक एक हाथ से ताली बजाते रहे? और ये एक हाथ भी साबुत रहेगा, इसकी गारंटी क्या है?

लीना मणिमेखमलई किस धर्म को मानती हैं, स्पष्ट नहीं है, लेकिन उनके रहन-सहन से वो हिंदू ही लगती हैं। धर्म की उनकी अपनी व्याख्या हो सकती है, लेकिन उसे सब स्वीकारें, यह कतई जरूरी नहीं है। ‘काली’ चित्रण को लेकर सांसद महुआ मोइत्रा का लीना के साथ कितना वैचारिक साम्य है या फिर वो ऐसा कहकर वो प्रति हिंदुत्ववादी लाइन लेना चाहती हैं, यह अभी साफ होना है। महुआ वो सांसद हैं, जिनके लोकसभा में पिछले दिनो दिए गए धुंआधार भाषण की व्यापक सराहना हुई थी। लेकिन अब ‘काली’ मुद्दे पर उनकी अपनी पार्टी टीएमसी ने ही उनसे पल्ला झाड़ लिया है।

हैरानी की बात है कि तमिल फिल्मकार लीना के इस अत्यंत विवादित ‘काली’ चित्रण की तमिलनाडु में अभी कोई खास प्रतिक्रिया नहीं हुई है। जबकि तमिलनाडु में काली पूजा की परंपरा हजार साल से भी ज्यादा पुरानी है। हालांकि बंगाल की काली और तमिलनाडु की काली में बुनियादी अंतर है। बंगाल की काली रौद्ररूपा है तो तमिलनाडु की काली अपेक्षाकृत सौम्यस्वरूपा है। एक बात और। चाहे नूपुर का मामला हो या लीना अथवा महुआ का, सारे विवाद के केन्द्र में महिलाएं ही हैं। तो क्या देश में महिला सशक्तिकरण अब एक नए स्वरूप, अवतार और तेवर में नजर आ रहा है?