सेब, आढ़ती और निजी कंपनियां – हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था के तीन अटूट अंग, फिर आरोप सिर्फ एक पर क्यों?

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शिमला: वैसे तो पहाड़ों में आजकल सेब का सीजन है, लेकिन विधान सभा चुनाव एक ऐसा सीजन होता है जो की हर पर भारी पड़ता है, और विशेषज्ञों के हिसाब से हिमाचल प्रदेश में सेब बागबानों की वर्तमान परिस्थिति के पीछे राजनीती ही एकलौती वजह है। सेब हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था का एक अभिन्न अंग है और पूरे देश में हिमाचल की साख भी है। लेकिन राजनेताओं और नीति निर्माताओं के ढुल मुल रवैये की वजह से सेब आजकल एक विवादस्पद विषय बन गया है।

कृषि के बारे में थोड़ा सा भी ज्ञान रखने वालों को पता है की किसानों की सबसे बड़ी समस्या है मंडियों का कुप्रबंधन और आढ़तियों का मनमाना व्यवहार जिसके आगे कृषकों के हित को हमेशा दरकिनार कर दिया जाता है। हिमाचल में सेब किसानों को भी इसी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है और आज तक किसी सरकार ने इसको दुरुस्त करने का कोई प्रभावी नियम नहीं बनाया। हर साल की तरह इस साल भी सेब के भाव पहले मंडियों में तय हुए और उसके बाद सारी निजी कंपनियों ने अपने दाम खोले।

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ठीक इसी तरह अत्याधिक आपूर्ति की वजह से खरीदी की कीमत पहले मंडियों में ही गिरी थी और ये सामान्य ज्ञान की बात है की कीमत का सीधा सम्बन्ध आपूर्ति से होता है। इसके बावजूद भी निजी कंपनियों ने अपनी खरीदी कीमत को मंडियों से ऊपर ही रखा है। इस साल अधिक आपूर्ति की स्थिति ये है की कई निजी कंपनियों को अपनी खरीदी कुछ एक दिन के लिए बंद भी करनी पड़ी थी ताकि वो पहले से आ चुके माल का भण्डारण ठीक से कर सकें। लेकिन कुछ किसान नेताओं ने हर बार की तरह मंडियों की व्यवस्थाओं को नज़रअंदाज़ करके सिर्फ निजी कंपनियों – ख़ास कर अदाणी एग्री फ्रेश – को निशाना बनाना शुरू कर दिया।

जानकारी के लिए बता दें की कीमतों के गिरने के बावजूद अदाणी एग्री फ्रेश आज भी ऊँची कीमतों पर सेब खरीद रहा है और उसके सारे प्रोक्योरमेंट सेंटरों के बाहर आज भी 48 घंटे से ज्यादा की इंतज़ार अवधि है। किसानों का सबसे ज्यादा नुक्सान राज्य सरकार के रवैये की वजह से हुआ है। पुरे प्रदेश में इस बार सेब की फसल बाकी सालों से पहले तैयार हो गयी थी, लेकिन राज्य सरकार के सुस्त रवैये की वजह से आज तक कीमतें या मापदंड निर्धारित नहीं हो पाए और किसानों को थक हार कर उन्हीं मूल्यों पर सेब बेचना पड़ रहा है जो की आढ़ती तय करते हैं।

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आढ़तियों द्वारा चलायी जा रही खरीदी प्रक्रिया पहले से ही त्रुटिपूर्ण साबित हो चुकी है, और साल दर बाग़बानो के शोषण के मामले – जैसे की काम कीमत देना, देर से पैसे देना या ना देना, बड़े बागबानों को तवज़्ज़ो देना, औने पौने तरीके से सेब की गुणवत्ता जांच करना इत्यादि – सामने आते रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ निजी कम्पनियों के तौर तरीके काफी भिन्न रहे हैं। वहां किसी भी अनाचार या भ्रस्टाचार के मामले आज तक नहीं आये हैं। कई निजी कंपनियां मुख्यतः अदाणी एग्री फ्रेश, विग्रो, देवभूमि इत्यादि किसानों को और भी कई प्रकार की अन्य सुविधाएं भी देती है।

अदाणी एग्री फ्रेश सही समय पर पेमेंट के साथ साथ, मुफ्त क्रेट, हेल नेट इत्यादि भी किसानों को उपलब्ध कराता रहता है। अब इस परिस्थिति में जरूरी है की सरकार जल्द से जल्द अपनी मंशा साफ़ करे और सेब से सम्बंधित नीतियों में समुचित बदलाव की घोषणा करे ताकि एक अच्छी व्यवस्था हर जगह मान्य हो। ये भी जगत विदित है की हिमाचल में कई बड़े नेता खुद सेब उत्पादक हैं। लेकिन ये किसी को नहीं पता की वो अपने सेब कहाँ और कैसे बेचते हैं और अगर वो निजी कंपनियों की जगह मंडियों को वरीयता देते हैं तो वहां उन्हें किस तरह की सुविधा दी जाती है। और अगर उन्हें पता है की निजी कंपनियों की प्रक्रिया में खामी है तो वो सिर्फ सेब के सीजन में ही क्यों जागते हैं।

आखिरी बात ये की हिमाचल के सेब किसानों को मुर्ख समझने की गलती इन नेताओं को अब और नहीं करनी चाहिए। ये किसान दशकों से सेब के व्यापार में लगे हैं और उन्हें भलीभांति पता है की मंडियों से ज्यादा पैसे निजी कंपनियां देती हैं और उनकी प्रक्रिया भी ईमानदार और पारदर्शी है। लेकिन नेताओं को सिर्फ एक ही बात नजर आती है और वो है वोट बैंक। आढ़ती वोट के साथ साथ चुनाव जीतने में भी मदद करते हैं तो आज तक उन पर नकेल नहीं कसी गयी। लेकिन अब समय आ गया है सबके ये जान लेने का की निजी कंपनियों के कंधे पर से राजनैतिक निशानेबाज़ी करके नुक्सान सिर्फ किसानों का ही होता है।

Source : PR