एंथोनी पाराकल : ‘संपादक के नाम पत्र लेखक’ को ऐसा ही होना चाहिए

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अजय बोकिल

वो भी एक समय था, जब समाचार पत्रों में ‘प‍त्र संपादक के नाम लिखना’ चौराहे पर हंटर फटकारने की तरह हुआ करता था। ये अखबार की ऐसी खिड़की थी, जिसके मार्फत पाठक खुद पत्र के संपादक से लेकर हर मामले पर तेज नजर रखते थे। कुछ अखबारों में संपादक के नाम पत्र ( ‘लेटर टू एडिटर’, जिसे संक्षेप में एलटीई भी कहा जाता है) अब भी छपते हैं, लेकिन वो देश के ‘संपादक के नाम पत्र-पुरूष’ एंथोनी पाराकल जैसा रिकाॅर्ड शायद ही बना पाएं। पाराकल ने 6 दशकों तक तमाम अखबारों को 4 हजार से अधिक पत्र लिखकर बीती 4 जुलाई को 90 साल की उम्र में आंखें मूंद लीं। इस विपुल पत्र लेखन के लिए ‘लिम्का बुक ऑफ रिकाॅर्ड्स’ में शामिल किया गया था। पाराकल के पत्रों की धमक इतनी थी कि पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई, गुलजारीलाल नंदा और राजीव गांधी ने उन्हें व्यक्तिगत रूप से पत्र लिखकर जवाब दिए थे। अखबारों को पत्र लिखकर सार्वजनिक समस्याओ  की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करने का काम पाराकल ताजिंदगी पूरे आस्था भाव से करते रहे। व्यक्तिगत स्तर पर उनकी यह ‘छोटी सी क्रांति’ ही थी।

मुंबई के मालाड निवासी एंथोनी पाराकल अखबार जगत में ‘मिनी सेलेब्रिटी’ के रूप में जाने जाते थे। ताजिंदगी उनकी कोशिश रही कि वे संपादक को पत्र लिखकर इस दुनिया को बदल दें। कहते हैं कि पाराकल ने संपादक के नाम अपना पहला प‍त्र 1955 में मुंबई के ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ को लिखा था। 2005 में उन्होंने ‘टाइम्स’ को आखिरी पत्र यह कर लिखा ‍िक ‘मैं अपना बाकी समय अब पत्नी के साथ बहस में गुजारना चाहता हूं।‘ लेकिन ‘टाइम्स’ को तब सुखद आश्चर्य हुआ, जब पाराकल ने 2012 में एक और मार्मिक ‍पत्र यह लिखकर भेजा कि ‘अपनी आंखें और याददाश्त गंवाने के बाद मेरी हैसियत एक माचिस की तीली जितनी रह गई है।‘ पाराकल के निधन पर इस ‘संपादक के नाम पत्र-पुरूष’ को कई लोगों ने श्रद्धांजलि दी। जाने-माने पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने ( ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ में रहने के दौरान) लिखा- हर हफ्ते ( ज्यादा नहीं तो) एक पत्र लिखकर वो मानो मेरे पीछे ही पड़ गए थे। संपादक के नाम पत्र लेखकों की वो बेहतर और मासूम ‍दुनिया, जिसे बाद में सोशल मीडिया ने हथिया लिया! एंथोनी पाराकल को मेरी श्रद्‍धांजलि। वरिेष्ठ पत्रकार के. विक्रम राव के अनुसार पाराकल असंख्य जनसमस्याओं के प्रति अधिकारियों का ध्यानाकर्षित कर उनका हल करा चुके थे। इसलिए उनका तखल्लुस ‘सर्वोदयम’पड़ गया था।

समाचार पत्रों में ‘पत्र संपादक के नाम’ की अहमियत वही होती है, जो मंदिर में जलते दीए की होती है। जिसकी रोशनी मद्धिम होने के बाद भी हैलोजन बल्बों से भी टक्कर लेती है। दुनिया का पहला ‘पत्र संपादक के नाम’ किसने और किस अखबार को लिखा था, इसकी ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है ( अगर किसी के पास हो तो अप डेट करें)। पत्रकारिता संस्थानों में भी इस पर ज्यादा काम नहीं हुआ है। फिर भी इस तरह का ( संभवत: पहला भी) एक पत्र प्रसिद्ध अमेरिकी वैज्ञा‍िनक और आविष्कारक बेंजामिन फ्रेंकलिन ने फ्रेंच अखबार ‘जूर्नाल द पारी’ ( द पेरिस जर्नल) को लिखा था, जो 26 अप्रैल 1784 के अंक में छपा था। हालांकि यह पत्र बेनामी था। इसमें फ्रेंकलिन ने पेरिसवासियों द्वारा दिन में ज्यादातर काम निपटाकर रात में मोमबत्ती का खर्च बचाने की कोशिश का मजाक उड़ाया था। अखबार ने इसे पत्र के ‘इकानाॅमी’ सेक्शन में छापा था। बहुआयामी प्रतिभा के धनी फ्रेंकलिन को तडि़त चालक और बाय फोकल ग्लास के आविष्कार के लिए जाना जाता है। फ्रेंकलिन ने खुद अपना अखबार ‘द पेनसिल्वानिया गजट’भी निकाला था। वैसे दुनिया का पहला अखबार ‘रिलेशन एलर फुरमेन उंड गेंडेनेकुरडीजेन हिस्टोरियन’ को माना जाता है। यह अखबार जर्मनी में 1605 में निकला था। इसमें पत्र संपादक के नाम छपता था या नहीं, इसकी जानकारी नहीं है। पत्र संपादक के नाम एक ज्ञात ऐतिहासिक पत्र ब्रिटिश अखबार ‘फ्रीमैन्स जर्नल’में मिलता है। यह पत्र एक पाठक जे. जे. मैकार्थी ने एक अन्य अखबार ‘डबलिन बिल्डर’ में उनका पत्र छापने को लेकर लिखा था। इसे ‘फ्री मैन जर्नल’ ने 28 जनवरी 1863 को संपादक की टिप्पणी के साथ छापा था।
वैसे अखबारों में बेनामी पत्र‍ लिखने की परंपरा भी काफी रही है। लेकिन 20 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में इस प्रवृत्ति पर कई संपादकों ने अंकुश लगा दिया। खास बात यह है कि संपादक के नाम पत्र वास्तव में अखबार में उस पाठक की हक की जगह है, जो उसे नियमित रूप से पढ़ता है और अपने मन की बात वह इस ‍पत्र के माध्‍यम से कहना चाहता है। इस अभिव्यक्ति की रेंज अखबार की त्रुटियों और संपादक के रवैए से लेकर दुनिया जहान की घटनाअोंतक हो सकती है।

संपादक के नाम पत्र की बात हो और ‘नईदुनिया’की बात न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। पाठकों का किसी अखबार में ऐसा ‘इनवाल्वमेंट’ बिरला ही देखने को मिलता है। हिंदी अखबारों में नईदुनिया ने ‘संपादक के नाम पत्र’ को ‘पत्र संपादक के नाम’ का तेवर‍ दिया। मूर्धन्य पत्रकार और नईदुनिया के पूर्व संपादक राजेन्द्र माथुर स्वयं पाठकों के पत्र पढ़ते और संपादित करते थे। नईदुनिया ने पत्र संपादक के नाम लिखने और छपने को ऐसा अनोखा ग्लैमर बख्‍शा कि जिस किसी पत्र लेखक का पत्र इस स्तम्भ में छपता वह अपने आप को जमीन से दो इंच ऊपर ही महसूस करता था। इस स्तम्भ में छपने को लेकर लोगों में गजब दीवानगी थी। इन्हीं पत्र लेखको में कुछ आगे चलकर प्रसिद्ध पत्रकार भी बने। माथुर साहब ने संपादक के नाम पत्रों को महज स्थानीय समस्या या किसी मुद्दे पर अपने अभिमत के दायरे से बाहर निकाल कर एक सार्थक और व्यापक बहस के मंच में तब्दील कर दिया था। नईदुनिया के पत्र संपादक के नाम स्तम्भ की बौद्धिक बहसें आज भी याद की जाती हैं। तब ऐसे पत्र लेखकों की पूरी फौज खड़ी हो गई थी।

कई अखबारों में ‘संपादक के नाम पत्र’ आज भी छपते हैं, लेकिन उनकी गूंज अब वैसी नहीं होती, जैसे तीन दशक पहले हुआ करती थी। इलेक्ट्राॅनिक और डिजीटल मीडिया के उदय तक अखबारों में ‘प‍त्र संपादक के नाम’ एक पवित्र लोकतांत्रिक कोना माना जाता रहा है, जिसमें पत्र के पाठक किसी भी मुद्दे पर बेबाक राय लिखकर संपादक को भेजते हैं। जिसमें प्रशंसा-आलोचना भी होती है। राजी-नाराजी भी होती है। सुझाव और आक्रोश भी होता है। समाज की खदबदाहट को पत्र संपादक के नाम’ के जरिए महसूस किया जा सकता है। यानी अखबार अगर ‘जनता की आवाज’ है तो ‘पत्र संपादक के नाम पत्र’ उस आवाज की स्वर ग्रंथी है। हालांकि 21 वीं सदी में पत्र संपादक के नाम का वो जलवा नहीं रह गया है, क्योंकि जनता की आवाज प्रेषित करने के कई प्लेटफाॅर्म हो गए हैं। जिन पर आम आदमी की अभिव्यक्ति बहुत कर्कश रूप में भी प्रकट होती है। हालांकि कई अखबारों ने अब इनका स्थान सीमित कर दिया है या फिर इसे फालतू जगह घेरने वाला मानकर बंद भी कर दिया है। क्योंकि प‍त्र संपादक के नाम से कोई ‘इनकम जनरेट’ नहीं होती। जनरेट होती है तो केवल बौद्धिक ऊर्जा। उधर टीवी चैनल्स भी केवल अपनी बात दर्शकों पर थोपते रहते हैं। डिजीटल मीडिया में कहीं-कहीं प्रतिक्रियास्वरूप ‘कमेंट’ का प्रावधान रहता है, लेकिन पत्र संपादक के नाम जैसी पवित्रता उसमें भी नहीं है।

एंथोनी पाराकल को अखबार की दुनिया और पत्र लेखक इसलिए भी याद रखेंगे कि उन्होंने इस शौक को एक सामाजिक मिशन में तब्दील कर दिया था। वो एक जागरूक पाठक और संवेदनशील नागरिक थे। ऐसा पाठक, जिसे अपनी दृष्टि और स्मृति गंवाने के बाद भी समाज की अभिव्यक्ति की चिंता थी। एक समर्पित ‘संपादक के नाम पत्र लेखक’ को ऐसा ही होना चाहिए।