बांसुरी और गायन से आलोक बाजपेयी ने बिखेरे राष्ट्र वंदना के स्वर

Share on:

भोपाल : मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी एवं संस्कृति मंत्रालय द्वारा प्रतिष्ठापूर्ण ‘गमक’ श्रृंखला में एक अभिनव प्रयोग किया गया. आज़ादी के परवानों के तरानों और राष्ट्र वंदना के गीतों के वे गीत जो बहुत मधुर, प्रभावी और इतिहास की धरोहर होने के बाद भी कहीं न कहीं समय की गति के कारण विस्मृत होते जा रहे हैं, उन्हें एक विशेष सत्र में आज़ादी के संघर्ष की साहित्यिक सांगीतिक यात्रा के रूप में प्रस्तुत किया गया. साहित्य अकादमी के निदेशक श्री विकास दवे की इस मूल अवधारणा की कर्णप्रिय एवं आंदोलित करने वाली प्रस्तुति दी इंदौर के सुपरिचित गायक एवं बाँसुरी वादक आलोक बाजपेयी ने.

कार्यक्रम से पूर्व प्रदेश की संस्कृति मंत्री सुश्री उषा ठाकुर जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि – भारत का क्रांति का इतिहास पूर्व के नेतृत्व कर्ताओं ने वामपंथियों के सहयोग से विकृत रूप में प्रस्तुत किया। दुर्भाग्य से पाठ्य पुस्तकों में अपने प्राणों की आहुति देने वाले हूतात्मा क्रांतिकारियों को वैसा स्थान प्राप्त नहीं हुआ जैसा होना चाहिए था। संस्कृति मंत्रालय साहित्य अकादमी के माध्यम से इस प्रकार के आयोजनों को सतत करता रहेगा। क्रांतिकारियों को श्रद्धांजलि देकर हम नई पीढ़ी को भी इस राष्ट्र भाव से जोड़कर स्मरण कराना चाहते हैं कि देश को आज भी ऐसे ही राष्ट्र भक्तों की आवश्यकता है।

आज भारत माता को देश के लिए मरने वालों की भले ही आवश्यकता नहीं किंतु देश के लिए जीने वालों की आवश्यकता तो हर राष्ट्र को सदैव बनी रहती है। मैं साहित्य अकादमी को इस अनूठे आयोजन के लिए हृदय से बधाई देती हूं और साथ ही अत्यंत सुंदर सस्वर प्रस्तुति के लिए श्री आलोक बाजपाई को ढेर सारी शुभकामनाएं व्यक्त करती हूं। भविष्य में भी उनका यह राष्ट्रभक्त स्वर पूरे मध्यप्रदेश में गुंजायमान हो यह प्रयास करेंगे। इस तरह के आयोजनों की आवश्यकता मध्य प्रदेश के प्रत्येक जिले में होगी। स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर हीरक जयंती वर्ष में हम संस्कृति मंत्रालय के माध्यम से इस प्रकार के आयोजनों को जिला और तहसील मुख्यालय तक ले जाने का प्रयास करेंगे।

इस अवसर पर मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी के निदेशक डॉ विकास दवे ने अपने पुरोवाक में कहा कि – स्वतंत्रता का संघर्ष वास्तव में विद्रोह अथवा म्यूटीनी नहीं नहीं था बल्कि वह अपनी मातृभूमि को आतताइयों और आक्रमणकारियों से स्वतंत्र कराने की लड़ाई थी। इसलिए वामपंथी इतिहासकारों द्वारा प्रयुक्त विद्रोह शब्द को हम नकारते हैं। जिन गीतो की प्रस्तुति गमक में दी जा रही है वह ऐसे गीत हैं जिन्हें गाते हुए क्रांतिकारी फांसी के फंदे पर चढ़े और भारत की जनता ने अंग्रेजो के बनाए हुए कपड़ों और सामानों की होलियां जला दी। राष्ट्रीय चेतना और स्वदेशी के भाव से ओतप्रोत यह कार्यक्रम वर्षों तक स्मरण रखा जाएगा।

साहित्य अकादमी एवं मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद्, भोपाल द्वारा कला विविधताओं की श्रेष्ठ प्रस्तुतियों को समर्पित प्रतिष्ठित श्रृंखला “गमक” के अंतर्गत यह विशुद्धतः सांगीतिक प्रस्तुति ना होकर साहित्यिक सांगीतिक प्रस्तुति थ. भारत अमृत महोत्सव की प्रारंभिक बेला में “स्वातंत्र्य समर : स्वर गंगा” शीर्षक की इस विशेष कार्यक्रम के पीछे साहित्य अकादमी के निदेशक श्री विकास दवे की यह भावना थी कि आज़ादी के संघर्ष के वे गीत जो किसी समय दूरदर्शन – आकाशवाणी के समय तो सुनाई पड़ते थे, लेकिन आज नई पीढ़ी उनसे कम परिचित हैं, ऐसे गीत पुनः गाये, गुनगुनाये और सामने लाये जाने चाहिए. नई पीढ़ी इन गीतों से जुड़े और इनके जरिये देश के स्वतंत्रता संग्राम के नायकों से. इस मूल भाव को ध्यान में रखकर इंदौर के गायक – बाँसुरी वादक आलोक बाजपेयी ने प्रस्तुति का स्वरुप ऐसा बनाया कि चुनिंदा गीतों को पूरा प्रस्तुत करने की बजाए अधिकतम गीतों को स्थान देने का प्रयास किया.

गीत के आर्केस्ट्रेशन भाग को कम महत्व देकर केवल शाब्दिक पक्ष को उभारा गया. शुरुआती आलाप, इंटरल्यूड म्यूज़िक आदि को संक्षिप्त कर कुछ गीतों के मुखड़े अंतरे और कुछ के सिर्फ स्थायी लेकर सीमित समय में अधिक गीतों का गुलदस्ता बनाया गया. श्री दवे का विचार था कि गीत की पंक्तियाँ मनो मस्तिष्क में उतरने के बाद नई पीढ़ी उन गीतों को स्वयं खोजे और उसमें इनसे जुड़ने की और प्यास जगे. इसी को दृष्टिगत रखते हुए सम्पूर्ण कार्यक्रम की गति आज के समय के अनुरूप तेज़ रखी गई ताकि दर्शक को विश्राम का पल कार्यक्रम समाप्ति के बाद ही मिले।

बाँसुरी पर “वन्दे मातरम” से शुरुआत करने के बाद आलोक बाजपेयी ने शहीद सर्वश्री रामप्रसाद बिस्मिल के जोश भरे तरानों, आज़ाद कुंअर प्रताप सिंह, अली सरदार ज़ाफ़री, अज़ीमुल्ला खां, पंडित नारायण ब्रज, रतनदेवी मिश्रा जी, करतारसिंह सराबा, बंशीधर शुक्ल आदि द्वारा रचित क्रांति के गीतों की झलक प्रस्तुत की तो राष्ट्रकवि रामधारी सिंह, सर्वश्री मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, श्रीधर पाठक, जयशंकर प्रसाद, जगदम्बा प्रसाद मिश्र, इक़बाल आदि के द्वारा की गई राष्ट्रवन्दना के स्वर भी इसमें शामिल रहे. जननायक टंट्या भील और भीमा नायक के लोकगीत भी इसमें शामिल थे तो गुरुदेव श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर की गांधीजी को बेहद प्रिय रचना भी. चरखे से स्वदेशी के प्रति प्रेम की अलख जगाते महात्मा गांधी पर देश के विविध अंचलों में बने लोकगीत भी इसमें शामिल हुए. वीर सावरकर जी की रचनाओं की झलक हिन्दी और मराठी दोनों में प्रस्तुत की गई.

राष्ट्रगान की बाँसुरी पर प्रस्तुति के साथ यह चिरस्मरणीय कार्यक्रम पूर्ण हुआ. 1857 से 1947 तक के स्वतंत्रता संग्राम के विविध रंग इस कार्यक्रम में शामिल होने से कई बार भावनाओं का ज्वार दर्शकों ने महसूस किया. कई बार दर्शक देशप्रेम और बलिदान के जोश को महसूस कर उमंग से भर उठे तो कई बार शहादत ने आँखें नम भी कर दीं. कई गीतों को ढूंढ़कर पुनः सुनने की चाह दर्शकों के मन में उठी, जो इस कार्यक्रम की सफलता का द्योतक है. . बला से हमको लटकाए अगर सरकार फांसी से ( शहीद रामप्रसाद बिस्मिल ), अब तो खादी से प्रेम बढ़ाओ पिया ( लोकगीत ), ने मजसी ने परत मातृभूमिला ( वीर सावरकर ), जो दिल में दावा है देश का तो कभी ना गैरों का माल लेंगे ( लोकगीत ), कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ कि सब उथल पुथल हो जाए ( बालकृष्ण शर्मा ‘ नवीन ‘), प्यारे भारत देश ( पं. माखनलाल चतुर्वेदी ),. टंट्या भील बड़ो लड़ैया अंग्रेजन तें ठानी रार ( लोकगीत ) आदि गीत दर्शकों के मन में बस गए.

आलोक बाजपेयी के साथ सर्वश्री रूपक जाधव ( की बोर्ड), कार्तिक विश्वा ( तबला – ढोलक ), हर्ष शर्मा (ऑक्टोपैड ) एवं – उज्जवल परसाई ( डफ, चाइम्स, क्लैप बॉक्स एवं साइड रिदम ) ने श्रेष्ठ संगत कर आनंद में श्रीवृद्धि की.
कार्यक्रम का संचालन साहित्य अकादमी के श्री राके

श सिंह ने किया।