अजब आलम है, कुछ शहर बंद हैं और कुछ खुले होकर भी ‘बंद” नजर आते हैं

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आशीष दुबे

वे सारे प्रवाह थम गये हैं जिनमें शहर-कस्बे के लोग तैरते थे।इससे कहीं बोरियत उपजी है तो कहीं निराशा और कहीं गहरा अवसाद। वैसे बोरियत आजकल एक ग्लैमरस शब्द है, साध्संपन्नाों के लिये। रोजगार से हाथ ध्ाो बैठे लोगों के लिये यह अवसाद का कालखंड है, बच्चों व बूढों के लिये यह अजूबा जैसा है क्योंकि उनकी दुनिया पहले ही सीमित थी अब और बंद-बंद सी है।

रात हो या दिन…बस जब हम कुछ काम नहीं कर रहे हों, अक्सर कुछ पुराना याद आता है बहुत साफ और स्पष्ट।ं। इससे मौजूदा वक्त के सूने दरीचे पर यादों का रंगीन मंजर खड़ा होता है, कोई ऐसा पुराना लम्हा दस्तक दे देता है जिससे कोई अच्छा या बुरा किस्सा गुंथा हुआ है या ऐसा पुराना वक्त आंखों के सामने घूमता है जिसके दरीचों पर कई सारे अहसास झांक रहे हैं। लगता है कि समय लॉकडाउन की मुट्ठियों से छूटने के लिये बेताब है।यह लॉकडाउन वह नहीं है जो दस या पंद्रह दिन या ज्यादा वक्त के लिये लगता-लगाया जाता रहा है। यह लॉकडाउन है उन सारी गतिविधियों  के बेजान हो जाने का,जो मार्च से पहले तक सभी को चलाए रखती थीं।

इनसे शहरों को स्पंदन व ऊर्जा मिलती थी और लगता था कि हम भी चल रहे हैं। लेकिन हमारे भीतर खुलते-बंद होते उपन्यास के पन्नाों में कुछ और किरदार भी हैं। याद कीजिये बरसों से लॉकडाउन के पंजे में फंसे उन लोगों को, जो शहर के भीतर या बीचों-बीच होते हुए भी किसी कोने या किसी गली का स्थायी चेहरा थे। शहर को शायद उन्होंने कभी आंख भरकर देखा ही नहीं। क्योंकि परिवार की गुजर का बोझ उनके सिर पर था और एक कोने या गली में वे दिनभर अपना काम करते, बोरी या साइकल पर अपनी दुकान वापस रखते और खोली में लौट जाते, सुबह वापस आने के लिये।

मन में सवाल आता है कि जिस शहर के लॉकडाउन होने से हम परेशान हैं या शहर के जिस नजारे को फिर आंखों के सामने चाहते हैं, क्या वह शहर इन लोगों ने हमारी आंखों से देखा भी था? उन्हें पता भी था कि उनका शहर कैसे बढ़ गया और कहां तक पहुंच गया? शायद नहीं,यूं कह लें कि शहर उन्हें छोड़कर आगे बढ़ गया। या उन्होंने शहर को आगे बढ़ने का रास्ता दे दिया था,खुद पीछे छूट जाने का अलिखित समझौता करके! असल लॉकडाउन तो वह है, हसरतों के मर जाने का।

हम हैं,कि चार महीने से बोर होने का रोना रो रहे हैं। क्या वे किरदार बोर नहीं हुए जो बीस-तीस या चालीस बरस से एक कोने में ‘लॉकडाउन” थे? अभी कहां दुबके हैं पता नहीं, जब शहर खुलेगा और चलेगा तो वे भी चलेंगे और फिर पहुंचेगे अपने पुराने ठीये पर रोजगार के लिये, किसी गली या कोने में बंद हो जाने के लिये। तो, यह लॉकडाउन वाली बोरियत, अनींदापन सब कुछ ऐसे ही लोगों को याद करके कम कष्टप्रद लगता है। ऐसे कई लोग दशकों से अनलॉक शहरों में तालाबंद रहकर भी जिंदगी से शिकवा नहीं करते देखे गये, तो हमारे लॉकडाउन से शिकवे कितने वाजिब हैं? हममें से कई लोग हैं जो कुछ समय से लॉकडाउन-कालखंड में कैद होकर भी काम कर रहे हैं जिसे रोजगार कहा जाता है और वे लोग ? उन्होंने तो जिंदगी का बहुत बड़ा हिस्सा उन हालातों में बिता दिया जिन हालातों की शिकायत हम अब कर रहे हैं। वे लोग एक किस्से की तरह हो गये हैं, हमारे लिये।अब हम भी कोई नया किस्सा ही होंगे शायद..।