राजेश ज्वेल
राहत इंदौरी को मैं शायरों का अमिताभ बच्चन कहता रहा हूं, क्योंकि उनकी शायरी में एंग्रीयंगमैन जैसे ही तेवर ही नजर आते थे… राजनीति पर उनकी शायरी जहां तीखी और तंज भरी होती है, वहीं वे मुलायम इश्कियाना शायरी से लेकर फिल्मी गीत भी उतनी ही शिद्दत से रचते रहे… उनकी इश्कियाना शायरी की एक मिसाल ही काफी है… मैं आखिर कौन-सा मौसम तुम्हारे नाम कर देता, यहां हर एक मौसम को गुजर जाने की जल्दी थी…!
एक कपड़ा मिल मजदूर के घर मुफलिसी में जन्मे राहत इंदौरी का किरदार कम फिल्मी और नाटकीय नहीं रहा… 18 साल की उम्र में शायरी पढ़ दाद बटोरने वाले राहत साहब का मुसलसल सफर 70 साल की उम्र तक बदस्तूर जारी रहा… 1 जनवरी 1950 को जन्मे राहत साहब कॉलेज के दिनों में हॉकी और फुटबॉल के अच्छे खिलाड़ी थे और जरूरतों के चलते 10 साल की उम्र में जब दुकानों के साइन बोर्ड पेंट करना शुरू किए, तो उसमें भी ऐसी लाजवाब फनकारी दिखाई कि लोग एडवांस बुकिंग करवाकर अपनी दुकानों के बोर्ड राहत भाई से ही पेंट करवाना चाहते रहे… बहरहाल जब शायरी की राह पकड़ी, तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा… हालांकि एक वक्त वह भी आया जब मयनशी में खुद को डुबो लिया और एक अरसा बोतलों के नाम ही रहा… मगर फिर संभले और झकझोरकर जब उठे तो उसके बाद फिर मजबूती से मंच संभाला और ताउम्र महफिलें लूटने का दस्तूर अनवरत जारी रहा.. मुंबई की मायानगरी ने भी बुलाया और टी-सीरिज के मालिक गुलशन कुमार ने तमाम मनोव्वल की तब जैसे-तेसे राहत भाई माने और एलबम रिकॉर्ड करवाई… शोहरत के साथ पैसे कमाने के लिए कई फिल्मों में खूबसूरत नग्मे लिखे, लेकिन माया नगरी रास नहीं आई और अपनी शायरी की दुनिया में लौट आए, क्योंकि मंच पर ही उन्हें असल सुकून और राहत मिलती रही… शेरो-शायरी की फिलवक्त दुनिया में ऐसा कोई मंच नहीं रहा जहां राहत इंदौरी की शायरी का डंका ना बजा हो… कई मर्तबा तो यह भी हुआ कि शुरुआत में ही पढ़कर पूरा मुशायरा राहत भाई ने लूट लिया और बाकी के बड़े शायर हाथ मलते रह गए…
सरहदों पर तनाव है क्या, जरा पता तो करो चुनाव है क्या…या ये शेर सुनिये…आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो , ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो ..ऐसे तमाम शेर राहत इंदौरी के मुशायरों से लेकर सोशल मीडिया पर जबरदस्त धूम मचाते रहे है… वो चाहता था कि कासा खरीद ले मेरा, मैं उसके ताज की कीमत लगा के लौट आया… ये बेबाक शेर कहने वाले राहत भाई के तेवर और मिजाज वाकई ऐसे ही थे… वे किसी तुर्रम खां की परवाह नहीं करते… मेरा उनसे राब्ता लगभग 31-32 साल पुराना है… अपनी पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में दैनिक भास्कर में काम करने के दौरान जब मरहूम शाहिद मिर्जा से मुलाकात के बाद दोस्ती हुई, तब उन्होंने ही सबसे पहले राहत भाई से परिचय करवाया… उस दौरान जवाहर मार्ग और रानीपुरा की कई होटलों में राहत भाई के साथ स्व. निदा फाजली और डॉ. बशीर बद्र के साथ भी छोटी महफिलों का मैं हिस्सा रहा… उस दौरान बद्र साहब मेरठ में रहा करते थे और बाद में जब दंगाइयों ने उनके घर को फूंक दिया तब बद्र साहब ने यह मशहूर शेर कहा था… लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में और तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में… इसके बाद ही बद्र साहब मेरठ से भोपाल शिफ्ट हो गए थे… मरहूम शाहिद भाई के साथ राहत इंदौरी से कई मुलाकातें उस दौरान होती रही, तब वे शायरी की दुनिया में इतने मशरूफ भी नहीं थे… हालांकि मुलाकातों का सिलसिला बाद में भी जारी रहा , जिसमें वही बेतकल्लुफी और अपनापन शरीक था…!
ऐसा नहीं है कि राहत भाई ने शायरी के सारे तीर गिरगिट को मात देती रंग बदलती राजनीति और उसके नेताओं पर ही छोड़े हों, उन्होंने कठमुल्लों को भी नहीं बख्शा और कहा… इबादतों की हिफाजत भी उनके जिम्मे है, जो मस्जिदों में सफारी पहनकर आते हैं… खुद राहत साहब चचा गालिब से लेकर हर दौर के ख्यातनाम शायरों और कवियों को पसंद करते रहे… स्व. नीरज जी ने भी राहत भाई के लिए कहा था कि उन्होंने जीवन और जगत के विभिन्न पहलुओं पर जो गजलें कही हैं वो हिन्दी-उर्दू की शायरी के लिए एक नया दरवाजा खोलती है… नए रदीफ, नई बहार, नए मजमून, नया शिल्प उनकी गजलों में जादू की तरह बिखरा है, जो पढऩे और सुनने वाले सभी के दिलों पर छा जाता है… वाकई नीरज साहब की ये बातें राहत भाई के लिए हमेशा मौजूं रहेंगी… उनके तेवर और तंज इसी तरह अंतिम सांस तक बरकरार रहें… एक हुकुमत जो इनाम भी दे सकती है… और एक कलंदर है जो इनकार भी कर सकता है… नि:संदेह राहत भाई एक ऐसे कलंदर थे जो हर दिल अजीज रहे और दुनिया ए फ़ानी तक रहेंगे भी … अब ना मै हूँ ना बाकी है जमाने मेरे , फिर भी मशहूर हैं शहरों में फ़साने मेरे ..इस नामुराद कोरोना ने हमसे बहुत कुछ छीना है और अब राहत साहब को भी …खुदा राहत इंदौरी साहब को जन्नत नसीब करें और उनके सभी अहल ख़ाना को सब्रे जमील अता फरमाए …आमीन !