75वें साल का तकाज़ा : कब बरसेंगी अमृत की बूंदें?

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निरुक्त भार्गव

रक्षाबंधन के दिन झाबुआ अंचल में एक आदिवासी महिला को निर्वस्त्र करके सरेआम गांव की पगडंडियों पर घुमाना…मंडीदीप में कलियासोत में 529 करोड़ रुपए के एक बांध का अपने निर्माण के एक साल में धराशायी हो जाना और धार जिले में 304 करोड़ रुपए के निर्माणाधीन कारम बांध में लीकेज आ जाना…मध्यप्रदेश के एक भी कॉलेज अथवा विश्वविद्यालय का देश के टॉप-100 की श्रेणी में शामिल नहीं हो पाना…उज्जैन के ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर दर्शन के लिए आगंतुकों से अलग-अलग स्तर पर मनमानी आर्थिक वसूली, आम श्रद्धालुओं को घंटों कतार में खड़ा रखने के बावजूद दर्शन से वंचित करना और कथित “विशिष्ट” लोगों को चुपचाप से गर्भगृह में ले जाकर पूजन-अभिषेक की सुविधा प्रदान करना.

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ये कुछ उदाहरण हैं, जिनका जिक्र कर मैं आप सबका ध्यान आज़ादी के 75वें वर्ष के सेलिब्रेशन यानी अमृत महोत्सव की तरफ दिलाना चाहता हूं: हाल के कई ऐसे घटनाक्रम हैं अलीराजपुर से लेकर असम तक और कलियासोत से लेकर कालीहांडी तक, कारम बांध से लगाकर कोलकाता के पुल गिरने तक…गुजरात में महात्मा गांधी के वक़्त से “प्रतिबंधित” मदिरा का भोग करने से बोटाड जिले में 30 लोगों की भयानक मौत…ये सब किसी नकारात्मक चिंतन के प्रतिबिम्ब नहीं हैं, बल्कि वो विचारणीय बिंदु हैं जो एक राष्ट्र-व्यापी बहस को आमंत्रित कर रहे हैं! हमारे पूर्वजों ने किस्म-किस्म की राजशाही और ब्रितानी सत्ता के कटु अनुभवों को सहने और फिर गहन और गंभीर चिंतन के बाद एक संविधान को अंगीकृत कर समस्त भारतवासियों के लिए एक प्रजातांत्रिक मॉडल बनाया था.

व्यवस्था बनाम शासक बनाम शासित…इनके बीच आदर्श संतुलन के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना भी की गई थी!
अब चलिए, आज के राजपथ पर: “पंथ प्रधान” अर्थात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश की जनता को ‘मुफ्तखोरी’ जैसी प्रवृत्तियों से असीम नुकसान पहुंचने की बिना पर सजग कर रहे हैं! उधर, ‘उप-राज्य’ दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल “फ्री-बीज़” यानी सुविधाओं की निशुल्क उपलब्धता पर ताल ठोके जा रहे हैं! मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तो ज्यादा से ज्यादा कर्जा लेकर घी पीने और पिलाने में सिद्धहस्थ हो चुके हैं!

उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को तो सिर्फ बुलडोज़र संस्कृति सुहाती है! पश्चिम बंगाल की सुप्रीमो ममता बनर्जी कब और क्या कर जाएंगी, कोई नहीं बता सकता! महाराष्ट्र का मुखिया कौन है, ये कोई नहीं जानता! बिहार में नीतीश कुमार मानों ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की कॉपी कर और बड़ी शाणपती से देश में विपक्ष की राजनीति में एक मजबूत ध्रुव बनने की फ़िराक में हैं! कांग्रेस-शासित राज्यों, उनके मुख्यमंत्रियों, उनसे सम्बद्ध विपक्षी दल के नेताओं और खुद कांग्रेस पार्टी के कर्णधारों की आज क्या स्थिति है: वो डरे-डरे, घबराये-घबराये और अपने अस्तित्व को बरकरार रखने का भीषण दौर देख रहे हैं.

इसमें तो कोई शक नहीं है कि राष्ट्र दौड़ रहा है, कमोबेश यही स्थिति राज्यों की और जनपदों और कस्बों की भी है! राजनीतिक दलों को भी बेशुमार और बेहिसाब चंदा मिल रहा है! जो “जनप्रतिनिधि” यानी उप-सरपंच या उसका नुमाइंदा हो अथवा देश के शीर्ष पद पर धंसा व्यक्ति हो, उसके सभी सुख और अधिकार भी बेहद सुरक्षित हो चुके हैं! देश के टॉप-1000 धनी लोगों और उनसे जुड़े कारिंदों को किसकी फ़िक्र है: ये सब हर प्रकार के भारतीय कानूनों और उनके प्रावधानों के दायरे में नहीं आते हैं! सरकारी योजनाओं और बैंकों के अरबों-खरबों की देनदारी को जीम जाते हैं और विश्व-भर में फैले ऐयाशियों के ठिकानों पर शिफ्ट हो जाते हैं!

बीते 75 सालों में देश की राजधानी और उसके 500 किमी के इलाके और राज्यों की राजधानियों के 200 किमी के दायरे में नज़रें फहराएं तो पता चल जाएगा कि टॉप लीडर से लेकर टॉप ब्यूरोक्रेट, टॉप जुडिशल ऑफिसर और मनोरंजन एवं जरायम पेशों में लिप्त हस्तियां आजू-बाजू में रहकर किस तरह का “सहकार”, “सहयोग” और “सरोकार” करती हैं! 1.35 अरब की घनी आबादी वाला ये मुल्क आखिरकार इतना स्पंदित क्यों रहता है: इसकी बुनियाद में कोई 20 फीसद अनुसूचित जाति का तबका और करीब 15 फीसदी आबादी का वनों में रहने वाला तबका शामिल है! अल्पसंख्यकों की आबादी भी कम-से-कम 15 फीसद तो है ही.

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चूंकि नरेन्द्र मोदी को “रेवड़ी कल्चर” अब फूटी कोड़ी भी बर्दाश्त नहीं हो रहा है, इसलिए उक्त 50 फीसदी के लाभान्वितों को मुहैय्या करवाई जा रहीं तमाम योजनाएं और उनके फलितार्थ “बदनाम” एजेंसियों के राडार पर हैं! गांव में उनके या उनके द्वारा समर्थित व्यक्ति को क्यों नकारा गया और दिल्ली आते-आते विरोधी खेमे को क्यों ‘स्पेस’ मिलने लग गई है, उसको देखकर मोदी के प्रबंधकों को अब “मूर्छा” आने लगी है!

75 साल के भारतीय स्वतंत्रता काल के ‘क्षणिक’ आवेगों और आरोहों के बीच ये तथ्य तो निर्विवादित है कि हम सबके बीच उस 30-40 फीसदी आबादी का कोई सम्मान नहीं है, जिसे “मध्यम वर्ग” के रूप में स्वीकार किया गया है! आज़ादी का अमृत महोत्सव रंगहीन, गंधहीन और सिरे से नाकारा है, इस वर्ग को तवज्जो दिए बिना! ”सब कुछ” पा जाने के बाद भी “हर कुछ” दांव पर लगाने के लिए अग्रसर रहने वाले इस नागरिक समाज का सन्देश क्या है: एक व्यवस्था जो शांतिप्रिय सह-अस्तित्व, सबको समानता से मानने और तमाम प्रकार की गंदगियों को मिटाने में सक्षम हो….ये अमृतकाल है: राजा हो या फ़क़ीर….