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प्रणब दा के आईनें में देशभक्ति और राष्ट्रवाद, सतीश जोशी की कलम से
Posted on: 08 Jun 2018 08:03 by krishna chandrawat
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में विचारधारा की सहमति और असहमति पर संवाद करना कोई नई बात नहीं है। वर्षों की गुलामी से मुक्त करवाने के लिए आजादी के दीवानों ने इसी संवाद के लिए संघर्ष किया और बलिदान दिया था। इस आंदोलन की अगुवाई करने वाली कांग्रेस पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ अपने ही बुजुर्ग नेता प्रणब मुखर्जी को संवाद करने से रोकने के लिए तमाम प्रयास करे यह चिंतनीय है। दरअसल नागपुर में प्रणब मुखर्जी ने अपने ही आईने में राष्ट्रवाद और सहिष्णुता को परिभाषित किया।
उन लोगों को भी सांकेतिक भाषा में जवाब दिया जो भारत को 15 अगस्त 1947 के बाद का राष्ट्र मानते हैं। प्रणब मुखर्जी ने जब यह कहा कि हजारों हजार साल पुराना हमारा यह भारत राष्ट्र सांस्कृतिक रूप से ही सहिष्णु है और इसी वजह से हमारे यहां जो भी आया वह यहां की मिट्टी में रच बस गया, तो उन लोगों को जवाब मिल गया होगा जिन्होंने भारत के वास्तविक इतिहास के साथ छेड़छाड़ की है। चाहे पंडित जवाहरलाल नेहरू का जिक्र किया हो या लोकमान्य तिलक का, हर एक दृष्टिकोण सेे उन्होंने भारत के राष्ट्रवाद को प्रतिपादित किया।मोहन भागवत ने इसी बात को अलग संदर्भ में कहा कि भारत में जन्म लेने वाला हर व्यक्ति भारतीय है और भारत माता की संतान है। यही बात प्रणब मुखर्जी ने सभी जातियां, सभी भाषायी और सभी क्षेत्रों के लोगों के संदर्भ में राष्ट्रवाद के लिए कही। वसुधैव कुटुम्बकम् पर आधारित उनका राष्ट्रवाद संघ के राष्ट्रवाद से अलग बताना राजनीति है और दोनों की राष्ट्रवाद की परिभाषा को समझना देशभक्ति है। प्रणब मुखर्जी ने सही अर्थों में संघ के मंच पर पहुंचकर वामपंथी और नेहरूवादी विचारकों को चुनौती भी दी कि सहिष्णुता को समझने की कोशिश करें।किसी विचारधारा से असहमति का यह अर्थ नहीं कि उससे संवाद न किया जाए। किसी विचारधारा की आलोचना तो की जा सकती है पर उससे दुश्मनी रखना और उसके साथ अछूत- सा व्यवहार करना सहिष्णुता नहीं है। पिछले वर्षों में भारत में सहिष्णुता को लेकर जो सवाल खड़े किए गए, खासकर वामपंथी विचारकों की तरफ से उनको एक तरह से शालीन भाषा में प्रणब मुखर्जी ने सबक सिखाया है। राजनीति में तपे-तपाए जीवन और अपने अनुभव से प्रणब मुखर्जी ने देश भक्ति और राष्ट्रवाद को धर्म, संप्रदाय या भाषा से जोडऩे वालों को भी कट्टरता छोडऩे का संदेश दिया।यह भी सही है कि जो लोग यह अनुमान लगाए बैठे थे कि संघ के मंच से प्रणब मुखर्जी कांग्रेस को घेरेंगे या संघ के मंच से ही संघ को आईना दिखाएंगे, ऐसे लोगों को निराशा हाथ लगी होगी। दरअसल, प्रणब मुखर्जी ने अपने ही आईने में देशभक्ति और राष्ट्रवाद को परिभाषित किया है। उन्होंने डॉक्टर हेडगेवार को भारतमाता की सच्ची संतान जब कहा तो उन लोगों को समझ लेना चाहिए जो आजादी के आंदोलन के दौरान संघवादियों को अंग्रेजों का पिट्ठू कहते हुए कोसते रहते हैं। आजादी के आंदोलन को कांग्रेस की विरासत बताने वाले लोगों को भी अप्रत्यक्ष रूप से उन्होंने यह बताने की कोशिश की है कि आजादी में सबका योगदान है और यह किसी पार्टी की बपौती नहीं है।
कल के मोहन भागवत के भाषण से भी एक कदम आगे बढ़ता संघ दिखाई देता है। जब भागवत ने यह कहा कि संघ हिन्दू समाज को संगठित करने के अलावा सर्वसमाज को संगठित करने का भी काम कर रहा है। अब तक जो स्वर सुनाई देता था वह हिन्दू समाज को संगठित करने तक सीमित था। कल सर्वसमाज की बात करना, मंच पर प्रणब मुखर्जी की उपस्थिति की बड़ी सफलता है, क्योंकि सर्वसमाज में भारत में जन्में मुस्लिम और ईसाई भी हैं।