बूढ़े हो जाना समाज में इतना लज्जास्पद और हास्यास्पद कभी नहीं रहा

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आशुतोष दुबे – जितना उसे पिछले दो दशकों में उपभोक्तावाद ने बना दिया। किसी भी कीमत पर जवानी खिंचती चली जाए, बूढ़ा न दिखना पड़े। ययाति ग्रंथि ने समाज को जैसे ग्रस लिया है। कॉस्मेटिक इंडस्ट्री, फ़िटनेस इंडस्ट्री, एंटी एजिंग, स्किन और हेअरकेअर प्रॉडक्ट्स ने बाज़ार में अपनी मजबूती लगातार बढ़ाई है। यह सिर्फ़ कहने की बात रह गई है कि हर उम्र का अपना सौंदर्य होता है। कहते सब हैं मानता कोई नहीं।

हिन्दी फ़िल्मों में सफल कलाकारों को भी पर्दे पर बूढ़ा होने की इजाज़त नहीं है। एकमात्र अपवाद अमिताभ बच्चन हैं, वे भी केबीसी में अपने नए रूप में स्वीकृति पा गए, इसलिए। पश्चिम में ऐसे कई कलाकार हैं जो अपने दर्शकों के सामने बूढ़े होते गए और अपनी उम्र के मुताबिक भूमिकाएँ करते रहे। वहाँ बूढों को केंद्रीय भूमिकाओं में लेने से परहेज़ भी नहीं है। क्लिंट ईस्टवुड 90 के हैं और अभी तक ‘द म्यूल’ में अपनी समझदार लापरवाही वाली भूमिका से रंग जमा देते हैं। एंथोनी हॉपकिन्स का क्या कहना ! 83 साल के इस अभिनेता ने ‘द फ़ादर’ में अपने ही दिमाग़ में भटक चुके डिमेंशिया के मरीज का जो अभिनय किया है, वह मार्मिक शब्द से बहुत आगे चला जाता है।इस भूमिका के लिए वे ऑस्कर विनर हैं।और न जाने कितने अभिनेता हैं। एल पचिनो, रॉबर्ट डी नीरो , मॉर्गन फ्रीमैन, हेलेन मिरन ,सूज़न सरैंडन, लिंडा हैमिल्टन वगैरह। यहाँ पता नहीं क्यों सब कुछ युवावस्था केंद्रित है। रेखा और जीतेन्द्र को एक टीवी शो के लिए तैयारी करने में कितना समय लगता होगा ! और उससे भी ज़्यादा दयनीय यह कि यह सब सिर्फ़ ‘अभी तक’ वाली इमेज को बनाए बचाए रखने के लिए। ‘मेरी त्वचा से मेरी उम्र का पता ही नहीं चलता ‘ एड वर्ल्ड की सबसे फ़रेबी और ललचाऊ लाइन है।

यह शायद इसलिए भी कि कलाकारों का यौनक्षम होना ही हमारी फंतासियों की ख़ास खुराक है। उम्रदराज कलाकारों को लेकर रीजनल सिनेमा में भले काम होता हो, हमारे यहाँ उनकी जगह हाशिए पर ही है। जैसे समाज और परिवार में।

वे मार्गदर्शक मंडल के शो केस में धूल खाते हुए अपने ही स्मृति चिन्ह हैं।